ह्रीं वह बीज मंत्र है जो सनातन मंत्रों में विशिष्ट स्थान रखता है। लाखों मन्त्र इसी बीज मंत्र से ऊर्जा एवं प्राण प्राप्त करते हैं। बीज मंत्रों का गूढ़ार्थ गहन साधना का गुप्त विषय है, ऐसे में जनसामान्य को कम से कम यह बेसिक जानकारी तो होना ही चाहिए कि व्याकरण की दृष्टि से इस महान बीज मंत्र का विन्यास क्या है।
उपरोक्त सम्बंध में निम्न मंत्र पर विचार करें।
वियद इकार संयुक्तम वीतिहोत्र समंवितं ।
अर्धेन्दु लसितं देव्या बीजं सर्वार्थ साधकं ।।
वियद इकार सयुंक्त – वियद अर्थात आकाश,
आकाश तत्व का बीज मंत्र है “ह” ,
“ह” बीज से ईकार अर्थात ई की मात्रा संयुक्त हुई।
ईकार अर्थात मातृ शक्ति। अर्थात पालन करने की शक्ति।
अब आकाश तत्व के बीज मंत्र से ई-कार सयुंक्त हुआ जिससे शब्द होगया “ही”।
मन्त्र में आगे लिखा है कि “वीतिहोत्र समंवितं”।
वीतिहोत्र अर्थात अग्नि, अग्नि का बीज मंत्र है “र”।
वियद और ईकार युक्त शब्द में अग्नि के बीज मंत्र का समन्वय हुआ और शब्द हो गया “ह्री”
आगे मन्त्र कहता है “अर्धेन्दु लसितं”,
अर्ध अर्थात आधा और इंदु अर्थात चन्द्रमा,
इस तरह अर्धेन्दु अर्थात अर्ध चन्द्र बिंदु।
लसितं अर्थात चमकना अर्थात प्रकाशित होना,
इस तरह वियद, ई कार और वीतिहोत्र युक्त शब्द
“ह्री” पर अर्ध चन्द्र बिंदु स्थापित हुआ।
चंद्र बिंदु स्वयं देवी रूप है।
सुधा अक्षरे त्वमेव त्रिमात्रात्मिका स्थिता ।
अर्ध मात्रात्मिका स्थिता यानुचार्या विशेषतः ।।
अर्थात सुधा अक्षर (ॐ) की तीनों मात्रा (अकार, उ कार, मकार ) एवं अर्धमात्रा (चन्द्रबिन्दु ) जिसका कोई स्वतंत्र उच्चारण नहीं है वह भी, हे देवी साक्षात् आपका ही स्वरूप है।
वर्णमाला में बिंदु का स्वयं कोई स्वतंत्र उच्चारण नहीं है, जिस वर्ण पर लगती है उसके अनुसार ही वर्ण के उच्चारण को प्रकट करती है। शक्ति को धारण करने हेतु शक्तिमान की आवश्यकता होती है।
इस तरह से सर्वार्थ साधक देवी बीज मंत्र “ह्रीं” का विन्यास हुआ ।
ऐंकारी सृष्टि रूपाय ह्रींकारी प्रतिपालिका ।
क्लींकारी कामरूपण्ये बीज रुपे नमोस्तुते ।।
ऐं बीज से अष्टधा सृष्टि उत्पन्न होती है, ह्रीं बीज से पालन होता है, क्लीं बीज से कामनाएं जाग्रत होती है।
इस प्रकार “ह्रीं” बीज पालक शक्ति युक्त एवं आकाश व अग्नि तत्व निर्मित बीजासन पर अर्ध-चन्द्र रूप में विराजमान देवी स्वरूप का मूर्त रूप है। जो सभी इच्छओं को पूर्ण करने में समर्थ है।
।। ॐ ह्रीं ॐ ।।