क्या हमारे ऋषि विज्ञान जानते थे? क्या उन्हें परमाणु विखण्डन की आधुनिक पद्धति, अथवा न्यूटन के गति के त्रि सिद्धांत की जानकारी थी?
शायद नहीं!!!
अथवा
शायद हाँ?
पर, कई बातें ऐसी है, जो विगत कुछ दशक की उपलब्धियां हैं, उन्हें हमारे ऋषि जानते थे। विशेषकर, धातु निष्कर्षण या खगोल में तो अब भी उनका कोई सानी नहीं।
इस प्रश्न को यूँ समझना चाहिये कि आधुनिक विज्ञान जिन परिभाषाओं और धारणाओं के ट्रैक पर चलता है, इससे भिन्न उनका ट्रैक कोई और था। वह ये वाला ट्रैक नहीं था। इस की गति बहुत मन्द है। कई निष्कर्ष, पीढ़ियों बाद प्राप्त होते है।
क्रांतदर्शी ऋषि, इन्हीं वैज्ञानिक सिद्धान्तों को क्षण भर में जान लेते थे। न केवल जान लेते थे, अपितु, उसके दूसरे ही क्षण वे यह निष्कर्ष भी निकाल देते थे, कि यह रास्ता, निरापद नहीं। सृष्टि के लिये हानिकारक और अंततः सबके लिये संकट का कारण बन सकता है।
राग-द्वेष से भरी दुनिया में इन रहस्यों का बाजारीकरण, बन्दर को एके47 देने जैसा है।
या इससे भी घातक।
इसलिए, पात्रता अथवा अन्य विकल्पों पर तुरन्त विचार किया गया। और, रोमांचक होते हुए भी उस खोज के ऊपर भारी शिला रख रास्ते को वहीं बन्द किया गया।
बिलकुल, उस तरह, जैसे किसी पिता ने, खेत में गड़े खजाने को और गहराई में दफन कर दिया क्योंकि उस धन के सम्भावित साइड इफेक्ट से उसके पुत्र भविष्य में कुमार्गी अथवा अकर्मण्य हो सकते है।
यह प्रवृत्ति, अभी भी भारतीय जन मानस में जिन्दा है, वे तो खैर ऋषि थे। और यह भी हो सकता है कि विज्ञान के वे शास्वत नियम, जो कहीं किसी मोड़ पर जाकर मिल जाते थे, और जानने आवश्यक थे, उन्हें मन्त्र अथवा सूत्र रूप में बता दिया।
क्रमशः