जिन कुछ एक भ्रामक शब्दों ने भारत का सबसे बड़ा नुकसान किया है उनमें अहिंसा, सहिष्णुता और धर्म निरपेक्षता को मैं सबसे ऊपर रखता हूँ। यहाँ भ्रामक शब्द से मेरा तात्पर्य है कि वो शब्द जो अस्तित्व में हैं ही नहीं, पर जिन्हें भ्रामक प्रचार द्वारा जीवित कर लिया गया है।
विसंगति देखिए जिस वामपंथ को ऐसे शब्द जाल रचने में महारत है वो कभी इनका पालन नहीं करते, उन्हें ना तो अहिंसा से कोई मतलब है, ना सहिष्णुता से और धर्म को तो खैर वो अफीम का दर्जा देते ही रहे हैं।
दरअसल वामपंथ (जो अपने आप में एक अघोषित मज़हब है) ने कट्टरवाद के विस्तार के लिए दुनिया भर में रास्ते (पंथ) बनाए जिन पर चलकर मज़हबी कट्टरपंथ ने पूरी दुनिया तक अपनी पहुँच बनाई… स्मरण रहे दुनिया में वामपंथ के अलावा एक ही मज़हब है जो लिखने-पढ़ने से लगायत सभी काम उल्टी दिशा से करने का आदी है। पूरी दुनिया से उल्टी दिशा में केवल यही दोनों यात्रा कर रहे हैं, इनके लिए दुनिया अभी भी चपटी है और शायद हमेशा रहेगी, क्योंकि दोनों ही जगह तर्क की कोई गुंजाईश नहीं है।
अब प्रश्न उठता है कि इस सब में हिंदुत्व कहाँ खड़ा है? वो हिंदुत्व जो विश्व बंधुत्व और वसुधैव कुटुम्बकम की सनातन शिक्षा का अनुयायी है। पर क्या आज इन शब्दों के लिए दुनिया में कोई स्थान है? और क्या हमारे पूर्वज गलत थे जो ये ज्ञान हमें दे गए?
नहीं…. पर शायद वो नहीं जानते थे कि दुनिया हमेशा वैसी नहीं रहेगी जैसी वो सोचते हैं। वो भूल गए कि दुनिया एक जंगल है, जहाँ जंगल का कानून ही चलता है। यहाँ सिर्फ वही अपना अस्तित्व बचा सकेंगे जो जंगल के कानून के हिसाब से चलते हैं। वो भूल गए कि प्रकृति निरंकुश है और जो इसके हिसाब से ढल सकेगा, केवल वही अपना अस्तित्व बचाने में सफल होगा… शेष काल-कवलित हो जाएंगे, पर हमने इस मूल सिद्धांत का पालन नहीं किया।
हमने निर्यात के लिए कभी कोई नीति नहीं बनाई, हम बस पूरी दुनिया से आयात करने में लगे रहे, चाहे फिर वो धर्म-ओ-मज़हब हो, भाषा हो, संस्कृति हो, लोग हों… हमने सब आयात कर लिया, बिना ये सोचे समझे कि ये सहज ग्राह्यता कहीं हमारा ही अस्तित्व और पहचान ना नष्ट कर दे… हमने खुली बाँहों सबका स्वागत किया। लोग आए और अल्पसंख्यक से बहु संख्यक होने की दिशा में बढ़ने लगे और हम पूरी दुनिया से सिमटते-सिमटते एक देश में रह गए और अब अल्पसंख्यक होने की दिशा में तेज़ी से प्रयासरत हैं।
हम विवधता में एकता का राग अलापते रहे और इस मूल सिद्धांत को भूल गए कि जहाँ विविधता है वहां एकता कैसे हो सकती है…. वैविध्य की समाप्ति के बिना एकता संभव ही नहीं है… और वैविध्य को बनाए रखकर एकता की कल्पना एक दिवा स्वप्न के अलावा और कुछ नहीं है।
बहुत सारे रंगों को यदि एक साथ मिला दिया जाए तो वो बहुरंगी नहीं हो जाता… बल्कि कोई एक रंग ही बनता है। हमने प्रकृतिगत सिद्धांतों की अवहेलना की है… हमने चरखे और अहिंसा के अप्रायोगिक सिद्धांतों का अनुसरण किया है। हमने ये जाना ही नहीं कि हर चीज़ पर सहमति के लिए हाँ में सिर झुका देना आत्मसमर्पण की एक घटिया निशानी है। पूरी दुनिया में जिन्हें कहीं शरण नहीं मिली वो मुंह उठा कर हमारे देश में चले आए और हमने उन्हें गले लगा लिया, हमने उन पर अपनी परम्पराओं को नहीं धोपा बल्कि उनकी परम्पराओं की रक्षा करते रहे, पर बदले में हमें क्या मिला? असहिष्णुता का तमगा…
क्यों हमने कभी किसी गलत चीज़ का विरोध नहीं किया? क्यों हम पर जो भी लाद दिया गया हम गधों की तरह उसका बोझ ढोते रहे? क्यों हमने ईंट का जवाब पत्थर से देना नहीं सीखा? क्यों हम दुनिया को ये बताते रहे कि हमने आज़ादी की लड़ाई लड़ी भी तो अहिंसा से, क्यों हमने अहिंसा के झंडाबरदारों से ये नहीं पूछा कि अगर वो लड़ाई है तो अहिंसक कैसे हो सकती है? या तो वो लड़ाई हो सकती है या अहिंसक… वो अहिंसक लड़ाई नहीं हो सकती।
हमसे बिना पूछे हम पर बंटवारा लाद दिया गया हमने कोई विरोध नहीं किया, धार्मिक आधार हुए बंटवारे के बाद हमसे बिना पूछे हम पर धर्म निरपेक्षता लाद दी गई पर हमने कोई विरोध नहीं किया, हमसे बिना पूछे और हमारे बिना चुने एक आदमी हमारा प्रधानमंत्री बना दिया गया पर हमने कोई विरोध नहीं किया….
दरअसल अपनी सहज ग्राह्यता के चक्कर में हमने दुनिया भर से जो कचरा आयात किया, उसने हमें इतना निष्क्रिय बना दिया कि हम विरोध करने के लायक ही न रहे। हम भूल गए कि याचना से ना तो सागर रास्ता देता है और ना चेतावनी देने से रावण, सीता… ना द्रुपद आधा राज्य देते हैं, ना कौरव पांच गाँव….
हम भूल चुके हैं कि जब अस्तित्व खतरे में हो तो ना सहिष्णुता के कोई मायने हैं, ना मर्यादा के और ना निरपेक्षता के….और अगर अस्तित्व मिटने की कगार पर भी हम इन तथाकथित आदर्शों की तिलांजलि नहीं दे पाते, तो हमें ये मानना होगा कि आज हिन्दू एक संकरित गिनीपिग हैं जो ना यहाँ के बचे हैं ना वहाँ के….
हमारी यादाश्त कमज़ोर हो चुकी है और हम ये भी भूल चुके हैं कि मनुष्य की अनुपयोगी पूँछ लुप्त हो चुकी है पर हमारे नाखून अभी भी बढ़ते हैं, क्योंकि संसार की हर जीवित संरचना अपने अंतिम स्वरुप में सिर्फ हिंसक होती है और अपने अस्तित्व को बचाए रखने की अंतिम परिणिति हिंसा ही है।
हम इसलिए दुनिया में नहीं आए हैं कि कोई भी सरे आम हमारा गला रेत कर चला जाए और हम सिर्फ ज़बानी लंतरानी पेल कर चुप हो जाएं…
इसलिए स्मरण रहे कि सहज ग्राह्यता इतनी भी नहीं हो कि कोई भी हरी चमड़ी का ‘ग्राह्य’ हमें आसानी से अपना ‘ग्राह्य’ बना ले….
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बहुत ही सुन्दर लेख जो एक सच्चे राष्ट्रवादी की अभिव्यक्ति मानी जा सकती है यह लेख वर्तमान परिस्थितियों और खतरों को सहज ही आलोकित कर रहा है इसके लिए अनुज गिरीष जी आप साधुवाद के पात्र हैं