जब से भारत में नरेंद्र मोदी की सरकार मई 2019 में वापस आयी है तब से भारतीय स्वार्थ आधारित भूमिमण्डल में उथल पुथल होती दिख रही है। यह उथल पुथल, पाकिस्तान से लेकर सभी उन स्थानों पर देखी जा रही है, जिनकी गांठ भारतीय उपमहाद्वीप से जुड़ी हुई है।
यह सब, जो लोग होता हुआ देख रहे हैं, वह अकस्मात नहीं हो रहा है। इस सब की नींव 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद रखी जानी शुरू हो गयी थी। यह सब कुछ मोदी सरकार की आक्रमक विदेश नीति व स्वयं नरेंद्र मोदी द्वारा विश्व के शक्तिशाली व समृद्धशाली राष्ट्रों के नेतृत्व से स्थापित किये गए व्यक्तिगत सम्बंधों के माध्यम से किया गया है।
हालांकि जब यह सब प्रारम्भ किया गया था तब जो लक्ष्य प्राप्ति के लिए समयकाल निर्धारित किया गया था व समयसारणी बनाई गई थी, उसमें अब अप्रत्याशित बदलाव आ गया है। मुझे वह स्पष्ट रूप से पुनर्निर्धारित होती दिख रही है।
उसका मुख्य कारक बाह्य तत्वों द्वारा रचित वे घटनाएं हैं, जिन पर किसी का नियंत्रण नहीं होता है। मेरा मानना है कि मोदी के भारत ने 2014 से जब विश्व के सामने अपने स्वार्थों को दृढ़तापूर्वक रखा था तब विश्व की शक्तियों के सामने साझा लाभ की पूर्ति के लिए विकल्प भी अवश्य दिया होगा।
पिछले 2 – 3 वर्षों के कूटनीतिज्ञ परिणाम इस बात को स्पष्टता दे रहे हैं कि यहां इन विकल्पों को विश्व को स्वीकार कराने में भारत की कूटनीति व विश्व में नरेंद्र मोदी की सर्वग्राह्यता ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
आज कश्मीर की घाटी को लेकर, पाकिस्तान व उनके भारतीय सहयोगी काँग्रेसी, वामी, लिबरल्स व कुछ क्षेत्रीय दलों को छोड़ कर, शेष विश्व में जैसे जैसे सन्नाटा छाता जा रहा है, वह स्पष्ट संकेत दे रहा है कि 5 अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर को लेकर जो निर्णय भारत ने लिया था, वह एकाकी में नहीं लिया गया था।
इस निर्णय के लिए वैश्विक स्तर पर तैयारी पहले से की जा चुकी थी। आज विश्व के सभी बड़े राष्ट्रों के कूटनीतिज्ञ, विदेशी संबंधों के विशेषज्ञ, थिंक टैंक व इस विषय के लेखकों ने यह मानना शुरू कर दिया है कि इसमें अमेरिका का बड़ा हाथ है।
आपको याद होगा कि 22 जुलाई 2019 को जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान, जो सऊदी अरब के राजकुमार प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान से सिफारिश करा कर, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प से मिले थे, तब वार्ता से पहले ही प्रेस कांफ्रेंस में ट्रम्प द्वारा कश्मीर में, भारत के प्रधानमंत्री मोदी जी की इच्छा से मध्यस्थता करने की बात व फिर पाकिस्तान को ईमानदार राष्ट्र बता कर सबको चौंका दिया था।
ट्रम्प ने उसमें 20 जून 2019 में ओसाका, जापान में हुई मोदी से अलग से हुई वार्ता का भी ज़िक्र किया था। भारत में इस बात को लेकर विपक्ष चढ़ बैठा था लेकिन उससे पहले भारत द्वारा इस बात का खंडन किया जा चुका था।
देखा जाए तो विश्व स्तर पर यह एक बड़ी कूटनीतिज्ञ दुर्घटना थी, जहां अमेरिका का राष्ट्रपति जो एक बात सार्वजनिक रूप से कह रहा है उसको भारत, सिरे से ही इनकार कर रहा था।
मेरे लिए यह कोई दुर्घटना नहीं थी। ट्रम्प का यह बयान, यूं ही सामने नहीं आया था। ट्रम्प ने यह बात इमरान खान से वार्ता करने के बाद नहीं कही थी बल्कि शुरू में कह कर पाकिस्तान को खुश किया था।
यह कूटनीति का सबसे कठोर व निर्मम पहलू, पथान्तरण (डायवर्ज़न) था, जो संवाद के मूल तत्वों में भटकाव देने के लिए प्रयोग किया जाता है। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद जो बन्द कमरे में ट्रम्प, इमरान खान के बीच पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा के बीच बात हुई, वही असली वार्ता हुई जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने अपनी वह लिस्ट सामने रखी, जो अमेरिका, पाकिस्तान से करवाना चाहता था।
यह वार्ता एक तरफा थी जिसमें पाकिस्तान, जिसे चीन द्वारा किसी बड़ी आर्थिक सहायता करने का इंकार मिल चुका था, को अमेरिका के स्वार्थों की पूर्ति करनी थी और उसकी सन्तुष्टि के बाद, पाकिस्तान को अमेरिकी सहायता मिलने की बात थी, जिससे पाकिस्तान अपनी आर्थिक मुसीबत से उबर कर संभल सके।
यहां यह महत्वपूर्ण है कि पाकिस्तान को मनोवैज्ञानिक रूप से तोड़ने के लिए इमरान खान का अमेरिका पहुंचने पर कोई स्वागत नहीं किया गया और वो मेट्रो में बैठ के अपने दूतावास पहुंचे थे।
यहीं पर यह भी महत्वपूर्ण है कि एक तरफ इमरान खान को महत्व नहीं दिया गया और वो 3 दिन बाद वापिस चले गए, जबकि जनरल बाजवा उसके बाद भी रुके रहे और जब वह अमेरिकी सेना के चीफ ऑफ स्टाफ से मिलने पेंटागन पहुंचे तो उनका स्वागत 21 तोपों की सलामी से किया गया था।
इसका सीधा अर्थ है कि अमेरिका अच्छी तरह समझता है कि अमेरिका द्वारा निहित योजना के प्रतिपादन में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की कोई भूमिका नहीं है बल्कि उसको सारे काम पाकिस्तान की सेना व उसके द्वारा संचालित अतिवादियों, आतंकवादियों और जेहादियों से करवाना है।
अब प्रश्न उठता है कि क्या अफगानिस्तान से निकलने के लिए अमेरिका इस हद तक जाएगा? क्या कश्मीर के मुद्दे पर बोल कर, पाकिस्तान को खुश करने के लिए, भारत के स्वार्थों को अनदेखी कर देना क्या वाकई अमेरिका के लिए लाभकारी है? ,
मैं ऐसा नहीं समझता हूँ। यह जम्मू कश्मीर को लेकर जो कुछ भी हुआ है, उसकी नींव 20 जून 2019 को ओसाका में रख दी गयी थी। मेरा मानना है कि जैसा ट्रम्प ने कहा कि मोदी से बात हुई थी, वह सत्य है। लेकिन उसके साथ जो कहा गया उसमें अर्धसत्य मिश्रित था।
नरेंद्र मोदी ने, जम्मू कश्मीर को लेकर भारत जो करेगा, वह बता दिया था और बहुत सम्भव है कि रूस, फ्रांस, जर्मनी, जापान आदि को भी इसके बारे में बता दिया था। मोदी ने उस वक्त इसके निष्पादन के लिए कोई निश्चित रूप से समय नहीं दिया होगा क्योंकि इस निर्णय को धरातल पर लाने के लिए कई अन्य तत्वों को भी सहेजना था।
मैं समझता हूँ कि ट्रम्प ने जब 22 जुलाई 2019 को कश्मीर के मामले में मध्यस्थता करने की बात की और पाकिस्तान को ईमानदारी का सर्टिफिकेट बांटा था तब यह अमेरिका की तरफ से भारत को संकेत था कि भारत, जम्मू कश्मीर को लेकर अगले चरण की तरफ बढ सकता है।
हम लोगों ने 5 अगस्त 2019 को जो इतिहास बनते देखा है, वह 22 जुलाई 2019 से क्रियान्वित होना शुरू हो गया था। मैं, इसी के साथ विश्व के अनेकों विशेषज्ञों की यह बात मानता हूँ कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने इमरान खान और जनरल बाजवा को सीधे बता दिया था कि भारत अपने जम्मू कश्मीर को लेकर कार्यवाही करने जा रहा है और एलओसी की तरफ से, पाकिस्तान की सेना व पीओके से घुसपैठियों द्वारा कोई कार्यवाही नहीं चाहता है।
सीआईए और पेंटागन ने ट्रम्प को यह अच्छी तरह से बताया रखा था कि पाकिस्तान की स्थिति 3 दिन से ज्यादा युद्ध करने की नहीं है और पाकिस्तान की सेना, जिसका पाकिस्तान के शासकीय तन्त्र पर कब्ज़ा है, वह हार के डर से युद्ध नहीं करेगी।
साथ में भारत और अमेरिका का यह भी मानना था कि आज की स्थिति में चीन चाह कर भी पाकिस्तान के समर्थन में भारत से युद्ध नहीं करेगा क्योंकि उसका एक तरफ सिपेक, जो लगभग बन्द पड़ा है, में 20 बिलियन डॉलर फंस गए हैं और दूसरी तरफ चीन, हांगकांग में जून 2019 से हो रहे लोकतंत्र की मांग को लेकर हो रहे प्रदर्शन, जो दिन पर दिन मज़बूत हो रहा है, में फंसता जा रहा है।
चीन में लोकतंत्र की मांग को लेकर हो रहे यह प्रदर्शन 30 वर्ष बाद हो रहे हैं, जिसकी परिणीति पूर्व में, 1989 में थ्यानमेन चौक में हुए रक्तिम नरसंहार से हुई थी। आज चीन सोशल मीडिया के ज़माने में है और व्यापारी है। उसकी प्राथमिकता हांगकांग को बिना कोई बड़ा नरसंहार किये शांत कराने में है, पाकिस्तान नहीं।
साथ ही, पाकिस्तान में जहां चीन के 20 बिलियन डॉलर फंस गए हैं, वहीं भारत से इस वक्त झड़प कर के सालाना 100 बिलियन डॉलर के व्यापार के डूबने का भी खतरा है, जो व्यापारी चीन के शुभ बिल्कुल भी नहीं है।
यह सब जो हुआ है, वह वैसे ही हुआ है जैसा मोदी सरकार ने सोच रखा था। अभी तक भारत की योजना पूर्णतः सफल योजना है। इसके साथ यह भी दिख रहा है कि भारत ने विश्व को, उसके स्वार्थ, यथार्थ और बाध्यता में बांध दिया है। लेकिन इसी के साथ एक यह यक्ष प्रश्न भी सामने मुंह बाए खड़ा है कि ऐसा क्यों है और भविष्य, विश्व के लिए क्या विस्फोट लाने वाला है?
क्रमशः
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