पुस्तक और नारों के अनुसार गरीबी हटाने का मतलब है कि सबके पास खाने को हो, per capita income के हिसाब से उनके पास पैसे हों, सबको बराबर पैसा हो, अमीर का पैसा गरीब को दे दो… जब पैसा होगा तो गरीबी ख़त्म।
ये है कम्युनिस्ट सोच, और जिसको भारत का योजना आयोग (planning commission) इधर उधर के आकंड़े जुटा के दिखाता रहा था पहले। एक घिसी पिटी लकीर, जिसपर ‘गरीबी हटाओ’ का नारा खूब चला… गरीबी तो न हटी, कई लोगों की अमीरी अथाह बढ़ गई
जबकि गरीबी हटने का मूल कदम कभी उठा ही नहीं… कम्युनिस्ट नारेबाज़ी वाले सोच का कोई परिणाम नहीं होता। जबकि गरीबी दूर होने का मतलब होता है निम्न :
क्या सबके पास घर है?
क्या सबके पास बिजली पानी है?
क्या सबके पास स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध है?
क्या पढ़ाई की सुविधा उपलब्ध है?
क्या आवागमन का रास्ता उपलब्ध है?
और क्या रोज़गार के अवसर उपलब्ध हैं?
अन्य किन मूलभूत सुविधाओं की उपलब्धता होनी चाहिए वो स्वयं जोड़ लीजिए…
अगर आप सरकार के पिछले कार्यकाल को देखेंगे तो उपरोक्त सभी मामलों में काफी तेज़ी आई क्योंकि इस पर आज़ाद भारत के इतिहास में सबसे अधिक मेहनत पूरे उत्तरदायित्व के साथ किया गया, इसलिए अंतर्राष्ट्रीय मानकों पर भारत काफी तेज़ी से ऊपर चढ़ता गया।
रोज़गार का मतलब सरकारी या निजी क्षेत्र की नौकरी नहीं है… सरकार को तो नौकर रखना ही नहीं चाहिए और सरकार को व्यवसायी भी नहीं होना चाहिए। अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी या जापान जैसे देशों में सरकार व्यापार नहीं करती… रूस, क्यूबा, कोम्बोडिया, वेनेज़ुएला की करती है।
भारत की भी सरकार व्यवसायी थी, जिसका चलन तेज़ी से नरसिम्हा राव के ज़माने से घटा। फ्रांस में रेल से लेकर न्यूक्लियर पावर स्टेशन Areva या EDF भी निजी संस्थान हैं, लड़ाकू विमान से लेकर मिसाइल तक निजी संस्थान बनाते है… चलाने का बटन सिर्फ सरकार के पास है, वो जानती है कब और किसपर चलाना है। सरकार सिर्फ नियामक और क्रियान्वयन करने के लिए होनी चाहिए… जितना अच्छा नियामक और क्रियान्वयन उतना बढ़िया प्रगति।
पहले मैं 5वें वर्ष गाड़ी बदल देता था। अभी मार्च में भी चुल्ल मची थी कि अब इसको हटाओ और नई लाओ, लेकिन फिर सोचा ये तो बढ़िया चल रही है… महीने के 10 दिन बाहर रहना है, 8 दिन छुट्टी, 5 – 7 दिन कहीं जाना नहीं, आसपास के लिए मोटरसाइकिल और स्कूटी है, तो फिर काहे शेष 5 – 7 दिन के लिए नई गाड़ी लें और ये तो फिर भी कुछ ख़ास चली ही नहीं… तो नई गाड़ी का प्लान फिलहाल कैंसिल कर दिया।
अभी IITG और DU में कुछ नए आए फैकल्टी मित्रों से बात हो रही थी तो उन्होंने कहा कि रहना कैंपस में है तो इधर स्कूटी ठीक है… बाहर जाने के लिए कार की ज़रूरत और वो भी महीने में 5 – 7 दिन तो उसके लिए उन्होंने आपस में कार पूल तैयार कर लिया है। नए लोग OLA/ Uber ले लेते हैं… न ड्राइविंग का झंझट, न गाड़ी में खरोंच आने का टेंशन और न ही पार्किंग की झिकझिक… हो गई कार बाज़ार में मंदी!
बनारस में एक मित्र बोले कि अब उन्होंने अपनी मोटरसाइकिल भी कम ही निकालना शुरू किया है… OLA बाइक को बुलाया… रथयात्रा से लंका 20 – 22 रुपये में या गोदौलिया 12 -15 रुपये में… इससे बनारस के तंग भीड़ भरे रास्तों पर न बाइक चलाने का झंझट और न ही हेलमेट ढो कर घूमने का बवाल…
खाने का सामान लोग भरपूर खरीद रहे हैं… कपडे भी खरीद रहे त्योहारों पर सिर्फ… मेरे पास भी कई शर्ट हैं जो दो-चार बार से ज़्यादा निकली नहीं… तो सस्ता देखते ही कपडे खरीदने पर रोक लगा दी है… आ गई कपड़े में मंदी…
कोई बात नहीं, जैसे ही दो-चार से मन ऊबेगा फिर खरीदारी होगी… गाड़ी अभी नहीं तो अगले साल या उसके अगले साल बदल ही लेंगे… आ जाएगी तेज़ी…
ये मन्दी बस वहीँ है जहाँ देख रहे हैं… ये मंदी नहीं ठहराव है… जो चल देगा… सरकारी रेल, सड़क से लेकर अन्य निर्माण के काम तेज़ी से आगे बढ़ रहे है… फ्लैट्स बन रहे हैं… बिक भी रहे हैं… पहले से सस्ते हैं, कम बिक रहे हैं, क्योंकि अब ब्लैक मनी इन्वेस्टर की जगह ज़रूरत वाला ग्राहक है… स्वास्थ्य, फार्मा और कॉस्मेटिक बढ़ रहे हैं।
लेकिन सबकी चाभी एक ही है… उत्पादन … Made in India और Make in India… ये जितना मज़बूत होगा उतना ज्यादा सामानों की उपलब्धता होगा, वो उतने सस्ते होंगे और जिससे खरीददार बढ़ेंगे।
ये जो थोड़ा इकॉनमी का ठहराव है वो बस है… लेकिन ये इकॉनमी ठहरी नहीं है… शहरों से कस्बों और गांवों की ओर मुड़ गई है… गरीबी हटाओ का नारा अब जाकर ज़मीन पर उतर रहा है।
So Just Chill…
और हाँ, ये लेखक दो-दो कंपनी चलाता है, अब तक 5 ऐसे Hitech Product बना चुका है जो भारत में पहले नहीं बनते थे, 3 अन्य उत्पादों पर काम चल रहा है।

तो लेखक स्वयं उन विदेशी कम्पनी के डीलर की दुकानों में मंदी लाने का जिम्मेदार है। 2 MNC के India और SAARC हेड रह चुका है, 3 FDI (प्रत्यक्ष विदेशी विदेश) करा चुका है, लगभग पूरे भारत देश और 22 अन्य देशों का अनुभव ले चुका है।
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