कश्मीर की समस्या का मूल रहा है उसकी इकॉनमी का केवल टूरिस्ट इकॉनमी होने में। समझते हैं कैसे।
सब से पहली बात ये समझनी होगी कि टूरिस्ट इकॉनमी हमेशा काँच के बर्तन जैसी भंगुर होती है, उसे टूटने में देर नहीं लगती। कहीं कोई रोग फूट निकला, टूरिस्ट आने बंद हो जाते हैं।
आप को याद हो न हो, SARS ने चाइना की खटिया खड़ी कर दी थी। बर्ड फ्लू से हाँग काँग, कंबोडिया, विएतनाम में प्रचंड प्रमाण में मुर्गियों का संहार करना पड़ा था। फिर भी एक-दो साल टूरिस्टों का अकाल रहा ही। और यह जान लीजिये कि वे देश टूरिज़्म पर कतई निर्भर नहीं थे, जिस तरह से कश्मीर था।
टूरिस्ट वे लोग होते हैं जिनके पास खर्चने को एक्सट्रा पैसे होते हैं। ज़ाहिर है कि अच्छे कमाते घरों के लोग होते हैं। साधारणत: खुद की सुरक्षा को लेकर सभी सजग होते हैं, लेकिन जहां जाना अपरिहार्य है वहीं आदमी जाएगा । टूरिस्ट अपनी जान जोखिम में डालने वहाँ थोड़े ही आयेगा?
कश्मीर की यही दुखती रग पकड़ी पाकिस्तान ने, और वहाँ बम धमाके, विदेशी टूरिस्टों का अपहरण, गोलीबारी यह सब का सिलसिला शुरू करवाया। इससे टूरिज़्म बंद होना ही था।
कश्मीरी राजनेताओं ने इस आपदा में अपनी जेब भरने का मौका देखा और 370, 35A, स्पेशल स्टेटस आदि की आड़ में स्वच्छता मुहिम नहीं चलायी। देश के लिए इस ब्रेन ट्यूमर की शुरुआत यही से हुई।
अगर कश्मीरी नेता देश की छोड़िए, प्रदेश की भी सोचते तो तुरंत सफाई और सफाया करवाते। लेकिन इनकी देश विदेशों में प्रॉपर्टीज़ और इन्वेस्ट्मेंट्स जो अब खुल रही हैं, यही बताती हैं कि उनको भारत के लिए कश्मीर का भूसामरिक महत्व समझ आया था और वे समझ रहे थे कि भारत इसकी कीमत चुका सकता है।
कश्मीर को जोड़े रखने के लिए बेहिसाब धन खर्च हुआ जब कि जो मोदी शाह ने किया वही काँग्रेस वाले समय रहते करते तो न इतना धन बर्बाद होता, न इतनी जानें जाती और न कश्मीरियों में इतनी अलगाव की भावना बलवती होती।
लेकिन इसके लिए सत्ताधारियों में देश के प्रति लगाव होना चाहिए। आज कश्मीरी राजनेता एक भी कारण ऐसा नहीं गिना पा रहे हैं जिससे जम्मू कश्मीर और लद्दाख का विकास हो रहा था। वे बस हवाबाज़ी कर रहे हैं उन लोगों के वादों की, जिनका इस देश का सत्ताधारी होना इस देश का सब से बड़ा दुर्भाग्य रहा है।
जनता की आदत होती है कि समय के चलते एडजस्ट कर लेती है। कश्मीर की जनता ने जब देख लिया कि हालात सुधरेंगे नहीं, तो एडजस्ट कर लिया। टूरिज़्म बंद होने से कितनों के घर उजड़े, करियर चौपट हुए कौन जानता है? और कश्मीरी नेता इस सब का ठीकरा हिंदुस्तान पर फोड़ते रहे।
बेरोज़गार ‘मज्जबी’ एक भयानक विस्फोटक होता है। ऊपर से लगातार दिमाग में यही ठूँसा जा रहा है कि तेरी हालात के लिए हिंदुस्तान ज़िम्मेदार है तो सामने पड़ता हर हिंदुस्तानी दुश्मन लगे इसमें कोई शक नहीं।
और यह बेरोज़गारी का दौर भी कितना लंबा चला? तीन पीढ़ियाँ कम नहीं होती। जब कमाई का साधन नौकरी ही हो सकती है और वो भी सरकारी, तो फ्रस्ट्रेशन को समझ लीजिये। ऊपर से ‘मज्जबी’, यह तो बंदर को शराब पिलाने पर बिच्छू से कटवाने की बात हुई।
सरकारी नौकरी या ठेका पाने के लिए क्या क्या किया गया होगा यह भी सोचिए। जब यही भागधेय हो जाता है – जैसे बंगाल में 35 सालों के वामपंथी dark age में हुआ था, लोगों की मानसिकता में कई अवांछनीय परिवर्तन आ जाते हैं, खास कर आम जनता के, जिनके पास विकल्प नहीं होते और हिम्मत भी नहीं होती। एक पशुवत हिंस्रता और धूर्तता आ जाती है कि हर अपरिचित या तो शिकारी है या शिकार। कई बार अपने प्रदेश से दूसरी जगह जाने पर एडजस्ट होने में समय लगता है तथा आप के प्रदेश की छवि भी अच्छी नहीं बनती वह अलग से नुकसान।
फ्रांस में जब राज्यक्रांति हुई थी तो राजा और रानी के बाद सरकारी नौकरों पर जनता की मार पड़ी थी। कई लोग सपरिवार, केवल परिवार का मुखिया सरकारी नौकर होने के कारण मारे गए थे और उनकी संपत्तियां हड़प ली गयी थीं।
कश्मीरी में वैसे भी कम पढ़े लिखे और बेरोज़गार हुए ‘मज्जबियों’ के लिए हिंदुस्तान और हिन्दू टार्गेट बना दिये गए तो अधिकतर सरकारी नौकरी करते पंडित टार्गेट बनाए जाएँ, यह लॉजिकल ही था।
उसके बाद भी बदहाली चलती रही क्योंकि संख्या और गुस्सा दोनों बढ़ गए थे और साथ साथ, इन दोनों पर राजनीति कर के अपनी रोटियाँ सेंकनेवालों की दुकानें भी खुल गयी थी। उनको भी अपना धंधा चलाना था।
कुल मिलाकर कश्मीर के हालत सुधरें इसमें किसी को रस नहीं था। भगाये गए हिन्दू भुलाए गए थे, अब भारत में उनके लिए बहुत भावना भी कम हुई थी, क्योंकि बहुतों ने एडजस्ट कर लिया था। कश्मीर में जलते अंगारों पर काफी लोग अपनी तंदूरियाँ सेंक रहे थे। कुछ वहीं बैठ कर, कुछ दिल्ली में बैठ कर। अब यही इनका स्पेशल स्टेटस बन गया था और इसे वे अपनी खुसूसियत और हकूक और जो मर्जी, समझने लग गए थे। और इस status quo में बदलाव इनको गवारा हो, यह मुमकिन नहीं था।
यहाँ सवाल आ सकता है कि स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने यह मसला हल क्यों नहीं किया, तो उसका उत्तर यह है कि मोदी जी को भी तो पहले पाँच साल बिसात बिछाने में लग गए थे।
उम्मीद है कि शीघ्र ही अन्य रोज़गार के अवसर कश्मीरियों को स्थिरता प्रदान करेंगे। कश्मीर को भी।
वैसे यहाँ टूरिज़्म पर प्रहार करने की पाकिस्तान की सोच उसकी फितरत में है। धन पर वार यह ‘मज्जब’ की खासियत रही है, मक्का का भी व्यापार खत्म कर के मक्का को अधीन कराने की कोशिशें याद करें। बानु कुराइज़ा के खजूर के पेड़ काटने की नीति याद करें।
और हाँ, भारत में युद्ध का वो प्रकार भी ‘मज्जब’ ही ले आया जहां किलों को घेरा डालकर प्रजा को इतना परेशान किया जाता था कि राजा या किलेदार, या तो समर्पण कर दें या फिर आत्मबलिदान। और शरणागत या हथियार डाल कर निहत्थे हुए शत्रुओं का नरसंहार भी वही नीति है जहां एक दिन में छह सौ (या नौ सौ) पुरुषों को कत्ल किया गया, बालकों को भी गुप्तांग पर बाल उगे हैं क्या, यह देखकर मारा गया।
ये सब याद इसलिए रखना चाहिए क्योंकि हमारा शत्रु पाकिस्तान नहीं बल्कि वो सोच है जिसने पाकिस्तान की ज़मीन को हम से नोच लिया था। उसका चरित्र पहचानें, बाकी सब लफ्फाज़ी है।
यह था कश्मीर समस्या का मूल खोजने का मेरा प्रयास। यदि आप सहमत हैं तो शेयर करने का अनुरोध है।
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