आजकल एक दौर चला है इतिहास को क्रमशः कोसने और उस पर कुप्पा होने का। स्वतन्त्रता संग्राम के नायकों को बाँटने का और विरोधी खेमे के आवंटित नायकों को नीचा दिखाने का।
गांधी या भगत सिंह, नेहरू या पटेल, भगत सिंह या सावरकर। और तुर्रा यह कि मेरे भगत की फाँसी गाँधी की अकर्मण्यता से हुई। तो अगला इल्जाम कि कश्मीर विवाद न होता यदि नेहरू के बदले पटेल कांग्रेस के संचालन कर रहे होते। आखिर में सावरकर ने माफी मांगी पर भगत सिंह ने फाँसी के तख्ते पर लटकना मंजूर किया। गाँधी और गोडसे तो राष्ट्रीय अस्मिता के कार्टून चैनल के टॉम एण्ड जेरी बन चुके हैं।
पर इन सारे शोधपत्रों का प्रकाशन स्थल है फेसबुक इंस्टीट्यूट और व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी। और इनका साक्ष्य पेश करके किसी पोस्ट पर दो परम मित्र भिड़ रहे हैं तो कहीं गुरु शिष्य।
अगर आपको इस नूराकुश्ती में हिस्सा लेना है तो तैयार रहिए या तो दकियानूसी या फिर नई उमर की नई फसल एक लापरवाह राष्ट्रीय बोधहीन युवा चरित्र बनने के लिए तैयार रहिए।
भगत की गर्दन दो जगह फँसी हुई है या तो गाँधी की कमअक्ली से फाँसी से नहीं बच पाए या सावरकर से ऊँचा उठने के लिए फाँसी पर चढ़ने को तैयार हो गए। स्वर्ग में भी परेशान होंगे कि फाँसी की असल वजह क्या थी?
यही हाल पटेल साहब का हो रहा होगा कि नेहरु और हम सत्ता में तो एक साथ निर्णय ले रहे थे पर ये फलाँ पार्टी के चहेते हो गये और मैं ढिमाके का।
सावरकर की माफी कूटनीति थी या पराजय स्वीकार्यता, गोडसे का निर्णय घृणित था या स्तुत्य, नेहरू से बेहतर पटेल होते या कमतर, फाँसी की सजा प्राप्त भगत सिंह भारत के ज्यादा काम आते या उनका जेल तोड़कर भाग जाना अधिक प्रेरणादायी होता?
ये भरे पेट की अय्याशियाँ है जबकि आज का भारत इन सबसे प्रयासों का परिणाम है इससे कोई भी चिन्तक इनकार नहीं कर सकता।
आलोचना चाहे हम सबकी कर लें पर इनमें से किसी एक के भी जूते में पैर डालकर हम में से एक भी एक दिन नहीं बिता सकता।
आर्यावर्त को ज़रूरत थी ऐसे लोगों की इस लिए उस कालखंड में ऐसी विभूतियों ने जन्म लिया वरना आजकल तो मोदी आगमन के बाद संविधान की रक्षा के नाम पर चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी खुद अपना मतदान नहीं करते और मीडिया के समक्ष आम वोटर्स को ‘पहले मतदान फिर जलपान’ का नारा देकर मतदान का महत्व समझाते हुए तनिक भी नहीं शरमाते हैं ।
जरा सोचें कि इस इतिहासजन्य विसंगति का कारण क्या है? आखिर क्यों एक संदर्भ जिसे त्यागी बताता है दूसरा स्रोत उसे निकृष्ट साबित कर देता है?
दरअसल सटीक इतिहास लेखन उस पुलिस की तरह है जो बरसों बाद वारदात की जगह पर जाकर सबूत इकट्ठा कर अपराध की सही व्याख्या कर दे और संभव हो तो कातिल को मय हथियार पेश भी कर दे। आप भी मानेंगे यह नामुमकिन है। और एक बात… बरसों का अर्थ सौ साल लेकर हजारों साल तक हो सकता है।
तो फिर इतिहासकार क्या करता होगा?
मेरे विचार से जहाँ तक आँकड़े मिलते हैं, इतिहास का गठन स्ट्रीमलाइन रहता है पर जैसे ही साक्ष्य नहीं मिले इतिहासकार कवि बन जाता है और अपनी कल्पनाशक्ति से अधूरे लेखन को पूर्ण कर देता है जिसमें उसकी अंतर्निहित विचारधारा का प्रभाव दिखता है।
यही भाग इतिहासकारों की तटस्थता के नाम पर राष्ट्रीय अस्मिता का अपमान करता हुआ दिखता है। किसी स्वतंत्रता सेनानी को टेररिस्ट या भगोड़ा संबोधन उसी तटस्थता का परिणाम है।
जहाँ भी हम इतिहास बोध में वैचारिक संघर्ष पाते है वह हिस्सा या तो किसी विचारधारा के वशीभूत होकर तटस्थता दिखाने की कोशिश में लिखा गया है या पूर्ण आत्ममुग्धता की स्थिति में।
दोनों भाव अतिवादी होंगे। पाठक, शिक्षार्थी, गुरु और गवेषकों को नीर क्षीर विवेकी बनना पड़ेगा। सच तो अनुभव और विवेक के लेन्स से ही नजर आएगा।
ये तो थी गड़े मुर्दे उखाड़ने से पहले कब्रगाह की हकीकत। पर अब ज़रूरी क्या है?
तो अब आरोप प्रत्यारोप समाप्त होना चाहिए। विजयी दल अतीत को कोसना छोड़कर देश के ज्वलंत मुद्दों पर ध्यान दे, साथ ही पराजित दल अपने शासकत्व के दिवास्वप्न से निकल कर देश के अंतर्मन को समझने की कोशिश करनी चाहिए।
दक्षिणपंथ को अतीत पर आत्मुग्धता की स्थिति से निकल कर वर्तमान की खुरदरी ज़मीन पर कदम रखना चाहिए… कारण, ज़िंदा माँ बाप को वृद्धाश्रम में भेजकर क्रान्तिकारी परदादा के ज़ख्मों का हिसाब जनरल डायर के वंशजों से मांगना देशभक्ति नहीं कहला सकता। अतीत में पूर्वजों के बागानों का मालिक होने पर भी वर्तमान में वंशजों को आम खाने को मिले, ये ज़रूरी तो नहीं।
अपने अतीत से सीख लेकर ही रुपहला वर्तमान और स्वर्णिम भविष्य गढ़ा जा सकता है।
अब समय की माँग ये है कि सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और वृद्धावस्था में असमर्थ बुज़ुर्गों की सम्यक पालन-पोषण की व्यवस्था निःशुल्क करे ताकि कोई भी नैराश्य से न भर पाए।
अगर वर्तमान को स्वर्णिम बनाने के लिए अतीत की कालिख से कोई समस्या हो तो उसे शोध का विषय बनाया जाए, न कि स्कूली या विश्वविद्यालय के सिलेबस का।
एक विधेयक पारित करवा कर लोकसभा को चुनाव से लेकर 5 साल तक स्थायी बनाकर उसे 5 साल तक सरकार चलाने का दायित्व सौंपे जाएँ ताकि मध्यावधि चुनाव का व्यय समाप्त हो जाए।
दो या अधिक निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ने पर हारी हुई सीट ही परिणामस्वरूप स्वीकार्य हो और दोनों जीतने पर छोड़ी गई सीट के रनर अप को विजेता माना जाए।
पूरे देश में एक कानून हो, जैसे धारा 370 या 35-ए यदि सही हो तो हर प्रांत में लागू हो, यदि नहीं तो फिर कहीं भी लागू न हो।
वर्तमान सरकार के पास सबसिडी, बेरोज़गारी भत्ता, वृद्धावस्था पेंशन, छात्र वृत्ति, मनरेगा जैसी भ्रष्टाचार पोषक योजनाओं का अम्बार लगा है। इन्हें समाप्त किया जाए और इन लोकलुभावन कार्यक्रमों के बदले ठोस सरकारी पहल, योग्य सरकारी पदाधिकारियों के हाथों क्रियान्वित करवाई जायें न कि निविदाओं के जरिए ठेकेदारों के मार्फत।
टोल टैक्स, शराबखाना, मेले, हाट आदि के ठेके देकर असामाजिक तत्वों का सरकारीकरण समाप्त हो और ये काम या तो सरकारी निगरानी में हो या फिर समाप्त हो जाए।
सामान्यतया सत्ता के लिए इतिहास लेखन विचारधारा प्रसारण का आधिकारिक तरीका है और विपक्ष के लिए कोसने का मुफ्त का मुद्दा। पर एक बात सच है कि उपर्युक्त मसलों में से यदि कुछ गिने चुने मसलों पर भी एक ईमानदार कोशिश सरकार हर सत्र में करती रहे तो उसे इतिहास पुनरीक्षण या पुनर्लेखन की जरूरत ही नहीं पड़ेगी…
क्यों कि प्रजाहित को सर्वोपरि मानने और तदनुसार क्रियाशील शासनप्रणालियों को समय शिलालेख में बदल देता है, वरना स्वार्थी सत्तालोलुपों को इतिहास के पन्नों में सिमटने से कोई ताकत नहीं बचा सकती है।
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