अपनी समस्या सुलझाने के लिए अभी भी सरकार की तरफ ही देखता है आम भारतीय

विदेशी समाचारपत्रों और भारत के अंग्रेजी मीडिया में प्रधानमंत्री मोदी की कुछ आलोचना लगातार पढ़ने को मिलती है कि –

(1) उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों – जैसे एयर इंडिया तथा नाना प्रकार के सरकारी निगम – का निजीकरण नहीं किया;

(2) लेबर या श्रम सुधार नहीं किया जिसके अंतर्गत कर्मचारियों की भर्ती और बर्खास्तगी आसान हो जाए;

(3) घरेलू संरक्षणवादी नीतियां – जिसके कारण देशी कंपनियों को विदेशी कंपनियों की तुलना में प्राथमिकता मिलती है – को समाप्त किया जाए जिससे विदेशी निवेश और उद्यम को बढ़ावा मिले।

मेरी निजी राय है कि प्रधानमंत्री मोदी को इन तीनो दिशाओं में कार्य करना चाहिए। यह तीनों कदम अर्थव्यवस्था में तेज़ी लाने के लिए आवश्यक है।

क्या यह नहीं कहा जाता कि निजी क्षेत्र अधिक दक्षता और कुशलता से कार्य करता है, संसाधनों का आवश्यकता के अनुसार वितरण करता है?

इसके अलावा अगर कर्मचारियों की नियुक्ति और बरख़ास्तगी में आसानी होने से निजी क्षेत्र रोज़गार देने में आनाकानी नहीं करेगा क्योकि बिज़नेस की आवश्यकता के अनुसार वह लोगों को रख और निकाल सकता है। और फिर, अगर विदेशी कंपनियां अपनी पूँजी और तकनीकी भारत में लाना चाहती है तो उसमें बाधाएँ क्यों लगायी जाएं?

कागज़ पर निजी क्षेत्र हर मामले में सार्वजानिक क्षेत्र से अधिक सक्षम है। आखिरकार इस निजी क्षेत्र को अपना उत्पाद जनता को बेचना है और उनके पैसे से ही लाभ कमाना है, बिज़नेस चलाना है, कर्मचारियों को वेतन और शेयरहोल्डर्स को भी लाभ पहुँचाना है।

लेकिन इस कहानी में समस्या यह है कि किंगफ़िशर एयरलाइन, जेट एयरवेज़, आम्रपाली और यूनिटेक बिल्डर्स, नीरव मोदी ग्रुप, सुज़लॉन, रुइया स्टील, जे पी ग्रुप, इत्यादि का गलत बिज़नेस व्यवहार और केवल लाभ का पीछा करने के कारण भट्टा बैठ गया।

अगर इसमें केवल उनकी ही हानि होती तो ठीक था, लेकिन इस प्रोसेस में इन लोगों ने आम जनता की कमाई, कर्मचारियों का वेतन और सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों का भी भट्टा बैठा दिया।

किसी समय यह निजी क्षेत्र यह भूल गया कि निजी लाभ के अलावा उन्हें जनता को भी लाभ पहुँचाना था, उन्हें उच्च गुणवत्ता की सेवा प्रदान करनी थी तथा धन के बदले जिस उत्पाद का वादा किया था, वह भी डिलीवर करना था।

यही चुनौती लेबर रिफॉर्म के साथ है। यह आवश्यक है कि कंपनी अपनी आवश्यकता के अनुसार कर्मचारियों को शीघ्र ही हायर (नियुक्त) और फायर (बर्खास्त) कर सके। लेकिन भारत जैसे ‘युवा’ राष्ट्र में यह नीति धीरे-धीरे लानी चाहिए, जिससे नौकरी ढूँढने वालों में यह विश्वास आ सके कि ईमानदारी से काम करने के बावजूद कंपनियां फेल हो सकती है या उनका बिज़नेस कम हो सकता है और तब उनके पास बिज़नेस चलाने के लिए पर्याप्त पूँजी नहीं है।

घरेलू संरक्षणवादी नीतियों की भी आवश्यकता, घरेलू उद्यमों और उत्पादों को बढ़ावा देना या फिर भारतीय जनता को विदेशी महंगे उत्पादों से बचाना है। उदहारण के लिए, अमेरिका इस बात से प्रसन्न नहीं है कि मोदी सरकार ने जन औषधि के अंतर्गत कुछ आवश्यक उत्पादों जैसे कि हृदय में लगने वाले स्टेंट के दामों में भारी कमी कर दी है जिससे अमेरिकी कंपनियों को लाभ नहीं हो पा रहा है। लेकिन फिर भी, कई क्षेत्रों में विदेशी कम्पनियां कई कदम आगे हैं और भारत में उनके आगमन से यहाँ की बिज़नेस प्रैक्टिस, उत्पाद, स्टोरेज और वितरण प्रणाली बेहतर ही होगी।

लेकिन नरेंद्र मोदी की विशेषता यह है कि वे समाचारपत्रों के – और मेरे – कहे अनुसार नहीं चलते। तभी तो वे दूसरी बार अधिक बहुमत से विजयी हुए हैं।

कहने का तात्पर्य यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने संघ प्रचारक के रूप में 15 साल बिताए हैं, जिसने उन्हें ज़मीनी स्तर के सामाजिक ताने-बाने का प्रत्यक्ष अनुभव दिया है। फिर उन्होंने संगठनकर्ता (organizer) के रूप में 15 साल कार्य किये जिससे उन्हें भारत में राजनीतिक व्यवस्था कैसे चलती है, इसकी समझ मिली है। फिर प्रशासक के रूप में 15 साल बिताये। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनने के पहले भारत के 450 से अधिक ज़िलों में विश्राम कर चुके हैं, 45 से अधिक देश घूम चुके थे।

इन 45 वर्षों के अनुभव से प्रधानमंत्री मोदी ने यह समझा कि आम भारतीय अभी भी अपनी समस्या सुलझाने के लिए सरकार की तरफ देखता है। साथ ही, वह निजी क्षेत्र पर पूर्णतया विश्वास नहीं करता है और इस क्षेत्र के मालिकों को आम जनता की समस्याओ से परे केवल लाभ का पीछा करने वाला मानता है।

इसके अलावा, निजी क्षेत्र उन्ही क्षेत्रों में निवेश करता है जहाँ आसानी से लाभ मिल सके। लेकिन सड़क निर्माण, मल-मूत्र की निकासी वाली नालियां (सीवेज), गाँव में स्वास्थ्य केंद्र, बैंकिंग सुविधा इत्यादि में निवेश करने को तैयार नहीं है।

अतः मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी इन तीनों क्षेत्रों – निजीकरण, श्रम सुधार और विदेशी निवेश पर काम करेंगे, लेकिन भारतीय परिस्थितियों और आम भारतीय के हित को ध्यान में रखकर।

विदेशी और अंग्रेज़ी मीडिया की आलोचना से वे परे हैं।

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