नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपनी द्वितीय पारी की शुरुआत करते हुए जब मंत्रिमंडल में गृहमन्त्री के रूप में अमित शाह को चुना था, तभी यह स्पष्ट हो गया था कि इस बार की मोदी सरकार, भारत के ही भीतर कुछ रुके व साहसी अंदरूनी फैसले लेगी।
अब यह बात अमित शाह द्वारा गृहमंत्रालय में जम्मू एवं कश्मीर में परिसीमन आयोग के गठन को लेकर हो रही बैठकों से स्पष्ट रूप से परिलक्षित है।
दरअसल जम्मू एवं कश्मीर में विधानसभा में विभिन्न क्षेत्रों की संख्या को लेकर हमेशा से ही विवाद रहा है। इसको लेकर मुख्यतः जम्मू क्षेत्र को हमेशा से ही शिकायत रही है कि विधानसभा की संख्याबल तय करने के लिए क्षेत्रफल और जनसंख्या का उचित ध्यान नहीं रखा गया है और विधानसभा का संयोजन इस तरह से किया गया है कि उस पर कश्मीर घाटी का वर्चस्व बना रहे और जम्मू एवं कश्मीर का मुख्यमंत्री भी कश्मीर की घाटी से यानी सिर्फ मुसलमान ही बन सके।
वस्तुतः जम्मू और कश्मीर की विधानसभा में क्षेत्रवार जिस तरह विधानसभाओं का गठन किया गया था, वह दुर्भावना से ही किया गया था। भारत में, जम्मू और कश्मीर के विलय के बाद जब वहां विधानसभा का गठन हुआ था तब वहां की शेख अब्दुल्ला की सरकार ने मनमाने ढंग से 43 सीटें कश्मीर घाटी, 30 सीटें जम्मू क्षेत्र व 2 सीटें लद्दाख को दी थीं।
इसका परिणाम यह हुआ कि वहां की पूरी राजनीति घाटी केंद्रित हो गयी और वहीं के मुसलमानों का ही वर्चस्व बना रहा। बाद में जब परिसीमन हुआ तब यह विधानसभा सीटें कश्मीर में 46, जम्मू में 37 और लद्दाख में 4 ज़रूर हो गयी लेकिन सत्ता हमेशा कश्मीर की घाटी और वहां के मुसलमान राजनीतिज्ञों के हाथ ही रही है।
भारत का संविधान, हर 10 वर्ष के बाद परिसीमन करने का अधिकार देता है लेकिन जम्मू और कश्मीर में कश्मीर की घाटी व वहां के राजनीतिज्ञों का दबदबा बना रहे, इसके लिए फारुख अब्दुल्ला ने एक षडयंत्र के तहत 2002 में, जम्मू और कश्मीर के संविधान में संशोधन कर के परिसीमन को 2026 तक रोक दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि कालांतर में वहां क्षेत्र व जनसँख्या को लेकर विधानसभा की सीटों की संख्याओं को लेकर काफी असंगतियां आ गईं।
अब वहां परिसीमन पर लगी रोक को हटा कर, परिसीमन आयोग के गठन का सीधा अर्थ यह होगा कि आगामी विधानसभा चुनाव में जम्मू एवं कश्मीर क्षेत्र की विधानसभा सीटों की संख्याओं में बदलाव होंगे।
जम्मू क्षेत्र की मांग के अनुरूप यदि परिसीमन हुआ तो आने वाले समय में उसके हिस्से में विधानसभा की सीटें बढ़ जाएंगी और ऐसा होने पर आने वाले समय में वहां, जम्मू क्षेत्र से कोई हिंदू भी मुख्यमंत्री बन सकता है। वर्तमान में जम्मू क्षेत्र से ज्यादा विधायक, कश्मीर क्षेत्र से चुनकर आते हैं। जम्मू क्षेत्र कश्मीर से बड़ा है और इसे देखते हुए इस क्षेत्र में ज्यादा सीटें होनी चाहिए लेकिन पिछले समय में हुए परिसीमन में वहां की जनसंख्या एवं क्षेत्र का यथोचित संज्ञान नही लिया गया था।
इसी के साथ एक समस्या और भी थी कि कश्मीर की घाटी के लोग हमेशा यही कहते रहे है कि उनके यहां अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग नहीं हैं, लेकिन 1991 में वहां के गुज्जर, बकरवाल और गरड़िया लोगों को, जो कुल जनसँख्या के 11% हैं, को अनुसूचित जनजाति का स्टेटस दे दिया गया था। इनको स्टेटस तो दिया गया लेकिन उनकी अभी तक राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं दिया जा सका है।
मैं समझता हूँ कि मोदी सरकार द्वारा जम्मू एवं कश्मीर में परिसीमन पर लगी रोक को हटाना, कश्मीर घाटी के राजनीतिज्ञों द्वारा भारत पर थोपी गई सामाजिक व राजनीतिक अराजकता का समूल उन्मूलन करने के लिए किया गया संवैधानिक प्रहार होगा।
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