विमर्श मुख्य रूप से एक पाठ यानी text होता है जो दृश्य हो सकता है या भाषिक हो सकता है या दोनों का मिश्रण हो सकता है।
विमर्श में वे उपकरण अंतर्निहित होते हैं जो अन्य विमर्शों को बाधित करके उस विमर्श को स्थापित करते रहते हैं जिसमें वे उपस्थित होते हैं। हमारे समय का सबसे मज़बूत विमर्श इस्लाम है।
इस्लाम की सबसे बड़ी मज़बूती वह विशेषज्ञ सत्ता है जो इसकी प्रतिनिधि होती है। उसने ऐसे लोगों की रचना की जो उसी की तरह सोचें, उसी की तरह व्यवहार करें। मुहम्मद में निर्णय की असाधारण क्षमता थी, अपनी सत्ता को अग्रसारित करने के लिये कोई हिचकिचाहट नहीं थी।
हमारे यहां ऐसे व्यक्तित्व बहुत रहे हैं। सबसे पहले तो देवकीनन्दन कृष्ण मुरारी। फिर चाणक्य। उनके बाद भी अनेक हुये। हम सबको भूल गये और उनके साथ जातीय विमर्श के महत्व को भी विस्मृत करते चले गये।
मुहम्मद ने अपने विमर्श के लिये प्रतिबद्ध बेहिचक, निर्बाध लोगों की रचना की जिन्हें मुसलमान कहते हैं। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने ऐसे लोगों की रचना की जो मुसलमानों से अधिक बेहिचक और अपने विमर्श के लिये प्रतिबद्ध थे। मुसलमानों ने खालिस्तान के मामले में उनका बेहतरीन इस्तेमाल किया।
यह अलग बात है कि खा़लिस्तान की कमर भी सिक्खों ने ही तोड़ी। इस तरह.की विमर्शात्मक शक्ति उनके ही पास थी। मुहम्मद और श्री गुरु गोबिंद सिंह जी दोनों के अपने अपने स्थान थे। मुहम्मद का मक्का मदीना, सिक्खों का पंजाब। स्थान का प्रतिनिधायन यहां महत्वपूर्ण है। पंजाब का नाम आते ही सिक्ख याद आते हैं और अरब शब्द से ही मुसलमानों का बोध होता है। विमर्श की मज़बूती यही है।
आज भी आप बंगाल का नाम लें, चीन का नाम लें तो कम्युनिस्ट एक दम से दिमाग में कौंध जाते हैं। बंगाल में अपने पांव जमाने के लिये ममता ने मुसलमानों का इस्तेमाल किया है, यह बहुत ही रोचक बिंदु है।
गुजरात में गोधरा कांड ने मोदी के मुख्यमंत्रित्व में ऐसे लोगों की रचना की कि मुसलमानों पर अत्याचार हो गया। यह बेहिचक प्रतिक्रिया थी जिसके पीछे कोई इस्लाम और सिक्खी जैसा ज़बरदस्त विमर्श नहीं था। उस विमर्श का पोषण तो नहीं किया गया पर मुस्लिम आतंक कम ज़रूर हो गया।
गुजरात विकास का मॉडल बन गया, जातीय विमर्श के स्थापित होने का मॉडल नहीं। गुजरात ने गांधी दिया था जिसके विमर्श ने गोडसे जैसे निराश हिंदू को जन्म दिया जिसके हाथों उसे मरना पड़ा।
गांधी एक विश्वप्रसिद्ध व्यक्ति है और स्वाभाविक है कि गांधी होने का लोभ राजनेताओं मे आयेगा विशेषकर तब जब वह राजनेता भी गुजरात से ही हो। गांधी होने का लोभ, कम से कम बाह्य स्तर पर मोदीजी में साफ दिखाई दे रहा है।
यह माना जा सकता है कि गांधी-विरोधी वक्तव्य देकर साध्वी ने राजनीतिक गलती की थी, परंतु क्षमा मांगने के बावजूद साध्वी के अपराध को अक्षम्य मानकर उन्होंने गांधी की तरह ही गोडसे जैसे निराश हिंदुओं की रचना करने की दिशा में एक क़दम बढ़ा दिया है।
यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि साध्वी भी उसी गांधीवादी विमर्श की शिकार है जिसके अनुसार मुसलमान की हिंसा का प्रतिकार नहीं किया जाता उलटे हिंदू को ही ग्लानि से भर दिया जाता है कि वही दिल नहीं जीत पाया जो कि उसका फर्ज़ था। इसी ग्लानि की रचना करने के लिये भगवा आतंकवाद का विमर्श रचा गया था।
मोदी को गांधी होने से बचना होगा। फिर से याद दिलाना आवश्यक है कि गांधी ने गोडसे जैसे निराश हिंदू की रचना की थी और गुजरात में मोदी ने हिंदुओं को निराशा से निकाला था जिसके पीछे गोधरा के बाद हुई जनप्रतिक्रिया का बहुत बड़ा हाथ था।
नमः परमशिवाय।
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