खंडित छत्र, भग्न रथ, अपने ही रक्त-स्वेद में सने धरती पर लोटते हुए महारथी, श्लथ-क्लांत कराहते हुए असंख्य पदातिक, दुम दबा कर भागती शत्रु सेना, लहराती विजय पताकाएँ, दमादम गूंजते हुए नगाड़े, बजती हुई विजय दुंदुभी, पाञ्चजन्य का गौरव-घोष… यह बहुत आश्वस्ति देने वाला परिदृश्य है। यह प्रचण्ड चमत्कार कैसे हो गया?
ढेर सारे विशेषज्ञ, विद्वान इस परमगौरवशाली विजय का विश्लेषण करेंगे। तरह तरह से इसे विकास की जीत बताएँगे। अतः इस प्रचण्ड विजय का सत्य बताना, समाज तक पहुंचना आवश्यक है।
आख़िर जाटवों ने बसपा को क्यों ठुकरा दिया? यादवों ने चारा खाने में जेल की सज़ा भुगतते बवासीर-पीड़ित लालू के राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी को क्यों दुत्कार दिया?
बौद्ध, जैन, सनातनी, सिक्ख, आर्यसमाजी यानी धर्म के हाथ की सदैव से खुलीं पाँचों उँगलियाँ सिमट कर मुक्का कैसे बन गयीं? बाल्मीक, क्षत्रिय, जाटव, ब्राह्मण, जाट, यादव, वैश्य, कुर्मी, कहार… हर वर्ग ने कांग्रेस, TMC, वामपंथ आदि को धार मार कर क्यों बहा दिया?
अपने बूते भाजपा 300 कैसे हो गयी?
प्रसून का मुरझाना, सागरिका का कीचड़ ठहरना, राजदीप का जुगनू भर भी न बचना, बरखा का रेगिस्तान बनना, प्रणय का स्थायी वियोगी होना, रवीश का कालिख निकलना यानी स्वयं को मुख्य धारा के तीसमार ख़ाँ मानने वालों को राष्ट्र ने मुँह दिखाने के लायक़ भी क्यों नहीं छोड़ा?
बँगाल में अपने नाम से बिलकुल उलट क्रूर ममता और उनके साथियों की भरपूर गुंडागर्दी के बाद भी कमल कैसे खिल उठा, क्या वहाँ विकास मुद्दा था?
भोपाल से दिग्विजय सिंह की साढ़े तीन लाख से अधिक की पराजय कैसे हो गयी? कल तक आत्मा तक को तोड़ देने वाली मार से आहत, बिलख-बिलख कर रोने वाली शस्त्रहीन पदातिक ने महारथी का कवच फाड़ कर उसकी राजनैतिक मृत्यु कैसे निश्चित कर दी?
साध्वी प्रज्ञा ने चुनाव प्रचार में नथुराम गोडसे को देशभक्त कहा। तुरंत प्रेस टूट पड़ा। भाजपा तक दबाव में आ गयी मगर यह अप्रतिम विजय बता रही है कि भोपाल के समाज के मन में क्या था। आख़िर प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक समाज का व्यक्ति झुलसाने वाली गर्मी में वोट डालने क्यों निकल पड़ा?
इसका वास्तविक कारण केवल और केवल राष्ट्र के मूल स्वरुप की चिंता है। नरेंद्र दामोदर दास मोदी नाम के तेजस्वी व्यक्ति का नेतृत्व राष्ट्र-रक्षा करेगा, का अखण्ड विश्वास है।
चुनाव से कुछ पूर्व बालाकोट में सैन्य आक्रमण के प्रमाण माँगने वालों को यह समझ ही नहीं आया कि राष्ट्र के लिये मुद्दा यह नहीं है कि बालाकोट में सेना का पराक्रम कितना कारगर है बल्कि मुद्दा है कि सेना शत्रु के पीछे उसके घर में घुस गयी। राष्ट्र तक जो संदेश पहुँचा वह था कि मोदी मर्द है और भारत वीरपूजा करने वालों का राष्ट्र है।
एक समय था कि देश के भाजपा छोड़ कर अन्य राजनीतिक दलों में इफ़्तार पार्टी देने की होड़ लगी रहती थी। तलुआ-चाट प्रधानमंत्री ने बयान दिया था ‘राष्ट्र के संस्थानों पर पहला हक़ मुसलमानों का है’। ‘हम 100 सीटें मुसलमान को दे रहे हैं, हम डेढ़ सौ सीटें अल्पसंख्यकों को दे रहे हैं’ जैसी बातें सामान्य थीं।
आपको ध्यान होगा कि कुछ वर्ष पूर्व इन कमीनों ने मुस्लिम वोट एकत्र करने के लिए केरल में गौ हत्या की थी। क्या इस चुनाव में किसी को ऐसी बेहूदगी का ध्यान है। किसी दल के नेता ने चुनाव में जालीदार हैलमेट पहना? कोई नेता दोनों हाथ उठाये दुआ की नौटंकी करता दिखाई पड़ा?
कोई राजनेता किसी इमाम, देवबंदी आलिम, क़ब्र के रखवाले के पास जाता दिखाई दिया? बल्कि पारसी दादा, ईसाई माँ, अज्ञात मज़हब को मानने वाले पिता के बेटे को हम सब ने विभिन्न मंदिरों की ड्योढ़ी पर माथा घिसते देखा। यह बदलाव स्वयं तो आ नहीं सकता तो यह हुआ कैसे?
मित्रों! इस चमत्कार का श्रेय राष्ट्र के बदले नैरेटिव को है। 1947 से ही भारत की मुख्य धारा का नैरेटिव गाँधी, नेहरू के दबाव में धर्मविरोधी बल्कि धर्मद्रोही था। अकेला, खिन्न, क्लाँत हिंदू अंदर ही अंदर असहाय अनुभव करता था मगर उसके पास अपनी पीड़ा को मुखर करने का कोई माध्यम नहीं था।
समाचारपत्र उनके इशारों पर चलते थे। रेडियो, टी.वी. उनकी ढपली बजाते थे। राष्ट्र अपने कष्ट कहे तो कैसे कहे? अचानक सोशल मीडिया का प्रादुर्भाव हुआ और पीड़ा को वाणी मिल गयी। समाचारपत्र, रेडियो, टी.वी. के समानांतर लाखों छोटे-छोटे केंद्र खड़े हो गए। ऐसे केंद्र जिन्हें विज्ञापन न मिलने की चिंता नहीं थी। ऐसे रेडियो-टीवी जिन्हें मालिक द्वारा नौकरी से निकले जाने का डर नहीं था। इस के कारण वैचारिक क्रांति लहलहा उठी।
इसी वैचारिक क्रांति के परिणाम से उपजे प्रखर, तेजस्वी, मुखर समाज को 2014 में विकल्प दिखाई पड़ा और वो ख़ासी तादाद में इकट्ठा हो गया। 2014 से 2019 तक के 5 वर्षों में इसने भाजपा ही नहीं बल्कि कांग्रेस, सपा, बसपा, TMC आदि की परफॉर्मेंस देखी। परिणाम यह हुआ कि वो भाजपा पर मुग्ध हो गया।
इसी मुग्धता का परिणाम खंडित छत्र, भग्न रथ, अपने ही रक्त-स्वेद में सने धरती पर लोटते हुए महारथी, श्लथ-क्लांत कराहते हुए असंख्य पदातिक, दुम दबा कर भागती शत्रु सेना, लहराती विजय पताकाएँ, दमादम गूंजते हुए नगाड़े, बजती हुई विजय दुंदुभी, पाञ्चजन्य का गौरव-घोष है।
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