हम सारी दुनिया को मूर्ख बना सकते है, लेकिन स्वयं को नहीं

आम चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी की साफ़-सुथरी इमेज और लोकप्रियता से निपटने के लिए काँग्रेस की रणनीति घिनौनी, लेकिन स्पष्ट थी। किसी भी तरह उत्तर प्रदेश में भाजपा को 15-20 सीटों पर समेट दो (यानि कि 50 सीटों का नुकसान); कुछ सीटों का घाटा महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हो जाएगा।

कुल मिलाकर अगर 80 सीटें कम हो गयी, तो भाजपा 200 से कम सीटों पर सिमट जायेगी। प्रियंका वाड्रा स्वयं स्वीकार चुकी हैं कि UP में काँग्रेस का रोल “वोट कटुआ” पार्टी का था।

दूसरी तरफ, नितिन गडकरी का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए उछालकर भाजपा में संदेह और विद्रोह के बीज बो दो। फिर, चुनाव के बाद गडकरी को दरकिनार करके राहुल को प्रधानमंत्री बनवा दो।

रणनीति काँग्रेस की थी, लेकिन इसे परिवारवादी, भ्रष्ट, क्षेत्रीय, नक्सली, अभिजात्य वर्गीय, और सांप्रदायिक पार्टियों का समर्थन प्राप्त था क्योंकि केवल काँग्रेस के पास ही कुटिल, पैशाचिक दिमाग और धन-संसाधन वाले लोग थे जो चुनाव जीतने के लिए किसी भी सीमा तक – यहाँ तक कि हिंसा और राष्ट्र-द्रोह तक भी – जा सकते थे।

आखिरकार यह चुनाव इन सभी दलों के अस्तित्व का प्रश्न था।

इस रणनीति की शुरुवात पिछले वर्ष पहली जनवरी को भीमा-कोरेगांव में दलित हिंसा को जानबूझकर भड़का कर की गयी। तदोपरांत, SC/ST एक्ट में कोर्ट से निर्णय करवा कर दलितों में अशांति और स्वर्णो का मोदी सरकार से मोहभंग करवाने का प्रयास किया गया।

अगला कदम कोर्ट में प्राइवेसी के नाम पर आधार को चुनौती देकर सरकारी सेवाओं – जैसे सब्सिडी देना, सही लोगो को लाभ पहुँचाना, टैक्स जमा करना, प्रॉपर्टी खरीदना – में इसके प्रयोग को रुकवाना था। क्योंकि भ्रष्ट तंत्र के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी भ्रष्टाचार और आतंकवाद (क्योंकि सभी सेल फ़ोन आधार से जुड़े थे) को डिजिटल तकनीकी और पहचान के द्वारा रोकने में सफल हो गए थे।

एक अन्य ट्रैक के अंतर्गत संवैधानिक संस्थाओं की निष्पक्षता और कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिह्न लगवाना था। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को उनके ही मुख्य न्यायाधीश के विरूद्ध प्रेस कांफ्रेंस करवाना, चुनाव प्रक्रिया, चुनाव आयोग, CAG, सीबीआई (जिसके निदेशकों की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट का भी हाथ होता है) इत्यादि पर संदेह जताना था।

इसी प्रकार, जस्टिस लोया की हृदयगति से निधन को षड्यंत्र बताना, जबकि हार्ट अटैक के समय उनके साथ दो सहयोगी जज उपस्थित थे।

इसके पीछे सोच यह थी कि बड़े पैमाने पर दलितों के नाम पर नक्सली, JNU टाइप हिंसा करवा कर, बिना आधार कार्ड के उपजे भ्रष्टाचार, और संवैधानिक संस्थाओं में काँग्रेस के प्रति डर बिठाकर मोदी सरकार को उसके कार्यकाल के अंतिम वर्ष में पंगु और असहाय बना दिया जाय।

लेकिन कोई भी चाल पूर्णतया सफल नहीं हो पा रही थी क्योकि प्रधानमंत्री मोदी की स्वच्छ, लोकप्रिय इमेज और उनकी नेकनीयत बाधा बन रही थी।

अतः राहुल गाँधी ने प्रधानमंत्री मोदी पर रफाल विमान की खरीद को लेकर बेसिरपैर के आरोप लगाने शुरू कर दिए और नारा दिया, ‘चौकीदार चोर है।” जैसा कि राहुल ने अपनी पीठ स्वयं थपथपाते हुए 2 मई को स्वीकार किया था कि इस नारे से उन्होंने मोदी की स्वच्छ छवि ”नष्ट” और ”चकनाचूर” कर दी।

लेकिन यह राहुल का ख्याली पुलाव था।

चुनावों के दौरान यह स्पष्ट होता जा रहा था कि प्रधानमंत्री मोदी के विज़न, उनके प्रयासों और उनकी नेकनीयत को बहुसंख्यक जनता का समर्थन प्राप्त था। उन मतदाताओं ने – जो जातिवाद के प्रभाव में किसी अन्य पार्टी को वोट देना चाहते थे – वे भी प्रधानमंत्री मोदी के निजी आचरण, निर्धनता में उनके और उनके परिवार का जीवन यापन, उनकी सदाशयता और ईमानदारी, सभी के विकास हेतु उनके प्रयासों, एवं आतंकवाद से निपटने के बारे में उनके दृढ़ निश्चय की प्रशंसा करते थे।

समाज के निर्धन वर्ग के व्यक्तियों ने कई पत्रकारों को बतलाया कि वे प्रधानमंत्री मोदी को वोट देंगे। यहाँ तक कि एपीबी न्यूज़ के एग्ज़िट पोल वाला भी मान रहा था कि कई मतदाताओं ने भाजपा को वोट देना स्वीकारा, लेकिन एग्ज़िट पोल ने ऐसे मतदाताओं की संख्या को अपने आंकड़ों में कम कर दिया।

लेकिन इन सब के परे राहुल, प्रियंका, ममता, अखिलेश, माया, चंद्रबाबू इत्यादि नेता छल-प्रपंच, अल्पसंख्यक वोट और जातीय समीकरण के सहारे प्रधानमंत्री मोदी को हराने के सपने देख रहे थे।

वे यह भूल गए कि उनकी रणनीति में न तो नेकनीयत दिखाई दे रही थी, न ही आने वाले समय के लिए कोई सार्थक कार्यक्रम या सन्देश था। विपक्ष ने पूरा चुनाव नकारात्मक मुद्दों – जैसे प्रधानमंत्री मोदी की इमेज पर चोट पहुँचाना और वोट काटने – पर लड़ा। वे यह भूल गए थे कि नकारात्मक मुद्दे तभी काम आते है जब प्रधानमंत्री मोदी के विरूद्ध जनता ने भारी रोष होता।

इन सबसे बढ़कर चिंता का विषय यह है कि विपक्ष अपनी हार का आत्ममूल्यांकन और आत्मनिरीक्षण न करके EVM और चुनाव आयोग को दोष दे रहा है। जबकि 277 लोकसभा सीटें उन राज्यों में है जहाँ बीजेपी की सरकार नहीं है; तो ईवीएम बदलने का आरोप ही बेमानी है।

परिणाम यह होगा कि विपक्ष अपनी कार्यपद्धति को नहीं बदलना चाहेगा और न ही जनता में पैठ बनाने के लिए परिश्रम करना चाहेगा।

उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि वे भारत के सभी युवाओं को कैसे रोज़गार उपलब्ध कराएँगे, उसके लिए क्या कठिन निर्णय करने होंगे, कैसे प्रदूषण कम करेंगे और साथ ही उद्योगों का विकास करेंगे?

कैसे किसानो को उनके उत्पाद का अधिक मूल्य देंगे, साथ ही उपभोक्ताओं को सस्ता अन्न उपलब्ध कराएँगे? कैसे स्वच्छ और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देंगे? कैसे सड़के बनवाएंगे, रेलवे का विकास करेंगे?

नक्सलियों के विरोध के बावजूद कैसे सिंचाई की व्यवस्था करेंगे, और विदेशी धन पर पलने वाले एनजीओ से मुकाबला करेंगे जो भारत के विकास में अपने आकाओं के इशारों पर बाधा डाल रहे हैं? कैसे सीमा पार से आने वाले आतंकवाद का मुकाबला करेंगे? कैसे जम्मू और कश्मीर, आतंकवाद, नक्सलवाद से निपटेंगे?

हम सभी को ज़िंदगी में कई असफलताओं का सामना करना पड़ा है। हम बाहर की दुनिया में कुछ भी बहाने बना दें, लेकिन हमें यह पता होता है कि हमारे प्रयासों में स्वयं की तरफ से क्या कमी रह गयी थी।

दुःख का विषय है कि विपक्ष ने सभी भारतीयों को मूर्ख बनाया है। लेकिन इससे भी चिंताजनक मुद्दा यह है कि वे अपने आप को भी मूर्ख बना रहे हैं।

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