गांधी वध और नाथूराम गोडसे : भारत के लिए अनिवार्य शिक्षा

साध्वी प्रज्ञा ने एक बार फिर, एक सत्य को कुरूपता से प्रस्तुत किया है। साध्वी प्रज्ञा को यह भली भांति मालूम होना चाहिए कि वे अब सिर्फ साध्वी नहीं है बल्कि राजनीति में पदार्पण कर चुकी प्रत्याशी भी हैं।

साध्वी प्रज्ञा को यह सीख लेना चाहिए कि आप जब राजनीति में होते हैं तो सत्य की कुरूपता को हमेशा चांदी के वर्क से सजा कर प्रस्तुत किया जाता है।

गांधी आपको या मुझे पसन्द हों या न हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है लेकिन जब आप उस दल के सदस्य हों, जो न सिर्फ सत्ता में है बल्कि उसका प्रधानमंत्री, गांधी को सार्वजनिक रूप से स्वीकारता और गुणगान करता है, तब बहुत फर्क पड़ता है।

मैं समझता हूँ कि भारत मे गांधी और नाथूराम गोडसे जी को लेकर हमेशा वाद विवाद बना रहेगा। आज से कुछ दशक पूर्व तक तो सिर्फ गांधी की ही बात होती थी और गोडसे जी निषेधित थे।

मुझे वह समय याद है जब सार्वजनिक रूप से गांधी की तटस्थ विवेचना या आलोचना करना ही अपराध था और भारतीय समाज उनको लेकर प्रश्न उठाये जाने को ही स्वीकार नहीं करता था।

लेकिन हम लोगों ने पिछले 7 दशकों में इतनी दूरी तो तय कर ली है कि अब गांधी के निर्णयों का शवविच्छेदन व उनकी आलोचना को सार्वजनिक स्थान मिल गया है। इतना ही नही, आज नाथूराम गोडसे जी द्वारा गांधी के वध के कारणों पर समीक्षा व उसके परिणाम स्वरूप भारत व उसके समाज को हुये लाभ व हानि पर भी सार्वजनिक बात की जा सकती है।

मेरे लिए तो इस सबसे महत्वपूर्ण यह है कि आज भारत इतना परिपक्व हो गया है कि उसने गांधी के महिमामण्डल से बिना छेड़ छाड किये, गांधी की शिक्षाओं की मीमांसा, परिणामों के आधार पर करनी शुरू कर दी है। आज गांधी जहां कठघरे में खड़े हैं, वहीं उनकी ‘अहिंसा व शांति की शिक्षा’ अपनी असफलता को लिए, आज की पीढ़ी के सूक्ष्म परीक्षण से गुज़र रही है।

मैं गांधी की इस बात को मानता हूँ कि इस दुनिया में अहिंसा व शांति से बड़ी कोई चीज़ नहीं होती है, लेकिन वह यह समझना भूल गए कि इस शांति के लिए कुछ अनिवार्य व्यवस्थाएं भी होती हैं जिनका सभी समुदायों द्वारा पालन करना अनिवार्य है। शांति के लिए, सभी समुदायों द्वारा विचारों और आचरणों में आयी भिन्नता को समावेश करना एक महती आवश्यकता होती है।

यह व्यवस्था श्रेष्ठ है लेकिन धरातल पर यही देखा गया है कि जब किसी भी समाज में ऐसी संस्कृति का समावेश हो जाता है जो इस भिन्नता को पूरक न मान कर, उसके मूल को ही निषेध करने की प्रवृत्ति रखती है तो, शांति की कांति उतर जाती है। और जब कांति उतरती है तब शांति के सारे समीकरण ध्वस्त हो जाते है। वह आवरणहीन हो जाती है।

इसी शांति की नग्नता को आवरण देने की व्यग्रता में जब लोग अहिंसा के शांति पाठ पर बैठ जाते हैं तो वे यह भूल जाते हैं कि जिस शांति की वेधशाला में आ बैठे हैं, वह अहिंसा की वधशाला है। यह भूल जाते है कि यह ‘अहिंसा का पाठ’, शांति काल का पाठ है और हमेशा ही विप्लव काल में इसकी प्रासंगिकता पर प्रश्न चिह्न ही लगते रहे हैं।

इस सृष्टि में अहिंसा व शांति का सत्य यही है कि एक कांतिहीन शांति, अहिंसा की पराजय है और हिंसा ही अहिंसा की जय के लिए दी गयी पूर्ण आहुति होती है। आज भारत जिस काल में है वह विप्लव काल है जो अपनी निरंतरता 1947 में दी गयी स्वतंत्रता से पहले ही बनाये हुए है। आज गांधी की अहिंसा व शांति की प्रासंगिकता तभी हो सकती है, जब हम हिंसा से होम करेंगे।

मैं यह इस लिए कह रहा हूँ क्योंकि गांधी जी की अहिंसा ने 1947 में भारत के 15 लाख लोगों की बलि ली थी। शांति की अभिलाषा में भारत को हिंसा से ज्यादा रक्तपात गांधी की अहिंसा ने दिया है। मैं व्यक्तिगत रूप से मानता हूँ कि नाथूराम गोडसे जी के द्वारा की गई हिंसा सिर्फ एक प्रतीक है जो गांधी की रक्तिम अहिंसा से श्रेष्ठ है।

अब हम लोगों को अपनी पुरानी गलतियों को फिर से नहीं दोहराना है। हमे अहिंसा व शांति के पथ का अनुसरण भेड़ बकरियों की तरह नहीं करना है क्योंकि यह उनके वधशाला का मार्ग है। हमें तो यदि भारत में संभावनाओं और शांति की स्थापना के लिए हिंसा का मार्ग सामने दिखता है तो उसका ही वरण करना चाहिये।

मैं गांधी को शांतिकाल के लिए उचित व विप्लव काल के लिए श्रापित मानता हूँ और उसी परिप्रेक्ष्य में ही मैं नाथूराम गोडसे जी का मूल्यांकन करता हूँ। यह दुर्भाग्य था कि गोडसे जी की उत्पत्ति उस भारत में हुई थी जहां भारतीय समाज मे गांधी की अहिंसा व शांति की सर्वग्राह्यता थी।

शायद यही कारण था कि नाथूराम गोडसे जी सिर्फ एकल अभिमन्यु बन कर रह गए। उनके कृत्य की आलोचना व समालोचना हमेशा ही होती रहेगी क्योंकि उनके द्वारा प्रयुक्त हिंसा पूरी तरह भावनात्मक व प्रतिशोध युक्त थी, जिसमें उनके किये कृत्य का भविष्य में भारत व हिन्दू हितों पर पड़ने वाले प्रभावों की कोई गम्भीर विवेचना नहीं की गई थी।

मुझे इस बात का हमेशा से दु:ख रहा है कि अपने जीवन के अस्ताचल में अपनी विचारधारा व शिष्यों से बुरी तरह पराजित व असहाय गांधी के वध ने उन्हें एक अमरत्व प्रदान करा दिया, जो भारत के भविष्य को अभी तक चोट दे रहा है।

मैं इसी परिप्रेक्ष्य में नाथूराम गोडसे जी द्वारा प्रयुक्त हिंसा के लक्ष्य व उसके समय निर्धारण को महत्वपूर्ण समझता हूँ क्योंकि, उससे भविष्य में भारत में हिंदुत्व व राष्ट्रवाद को हुये लाभ व क्षति पर शास्त्रार्थ हमेशा समकालीन रहेगा।

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