यदि किसी सफल व्यक्ति के पीछे कोई दुखी महिला का हाथ होता है तो विश्व के सारे मोटे बच्चों-बड़ों के पीछे उनकी माँओं का लाड़ होता है।
बेटा कितना भी बड़ा हो जाए और उसकी पत्नी उसका कितना भी ध्यान रखे लेकिन माँ के लिए उसका बेटा वो ही दूध पीते बच्चे जैसा अबोध होता है और हर माँ के अनुसार बेटे की पत्नी अपने पति का ख्याल रखने में लापरवाह होती है।
आठ भाई बहिनों में मेरी शादी सबसे अंत में हुई थी…
लोहे के मोटे तले वाली कढ़ाही में धीमी आंच पर औंटते दूध की मोटी मलाई… तीन पाव दूध के गिलास में एक तिहाई हिस्सा इस मौटी मलाई का होता था…
क्रूर मइयो पहली गहरी नींद के सुख का ख्याल किए बिना उस दूध को पिलाने के लिए सोते से उठा देती… और नींद ना खुलती तो कभी जीजी कभी मइयो गर्दन के पीछे हाथ लगा कर मुंह से गिलास लगा देती… मजबूरन सुख भरी नींद साथ छोड़ ही देती…
मइयो का लाड़ था कि फिर से फट पड़ता और कढ़ाही की खुरचन में निरा सारा बूरा डाल कर कढ़ाही हमारे सुपुर्द कर देती थी।
इतनी कढ़ाही चाटने पर कायदे से तो अपनी शादी में भयंकर बरसात होनी थी लेकिन कमाल रहा, बरसात तो दूर बादल तक भी देखने को नहीं मिले।
शादी होने के बाद हमको एहसास ही नहीं हुआ कि हमारे खान पान गर्मी सर्दी के कपड़े का ध्यान रखने वाली मालकिन भी हमारे जीवन में आ चुकी है।
उर्द दाल के साथ मोंमन की गुंठेवा रोटी… अरहर की दाल के साथ मिस्सी रोटी… मूंग की दाल के साथ मीठी अचारी और अदरक हरी मिर्च, काली मसूर में ज्यादा सा घी और हल्की सी मिठास…
तो जाड़े में बैगन की सब्जी के संग बाजरे के मेथी के पराँठे, रायते के संग बथुआ आलू के पराँठे तो आलू की सब्जी के संग बाजरे के हींग मिर्च वाले पराँठे…
खाना खाने के बाद कुछ ना कुछ मीठा… और यदि मीठा ना हो तो बूरे का दही तो रहता ही रहता था।
और कितना भी ठूंस ठूंस कर खाने के बाद भी ‘बेटा आज कोई बात ए… खानौ ठीक तरह ना खायौ’।
कुल मिला कर एक लंबा मीनू मइयो के पास रहता था जो कि हमारी पाँच-छः किलोमीटर की दौड़ और आठ दस किलोमीटर पैदल चलने की मेहनत को यूं ही जाया कर देता था… हम तमाम प्रयास करते कि कैसे भी वजन घटे लेकिन मइयो ने तो कसम खा रखी थी कि उसको अपने बेटों का वजन घटने ही नहीं देना है।
मैं जब भी घर से बाहर, यहाँ तक कि दिन में तीन चक्कर लग सकने वाले आगरा भी जाता थी तो वो सुबह, सास बहुओं में अशांति से शुरू होती थी…
मईयो ठाकुर जी के सामने गोपाल सहस्रनाम का पाठ या कोई माला कर रही होती लेकिन उसका ध्यान उसके बेटे की भूख की ओर लगा रहता… बहू से रिरिया कर कहती
‘नेंक जल्दी सै नहा धो लै, नौन अजमान के दो पराठे सेक कै छोटे से कटोरदान मैं चुपचाप दुबका कै रख दै…’
“हाँ बस तुमईये ध्यान ऐ… मैं तौ कछु ध्यान रख ई ना सकूँ तौ तुम ई पूजा पै सै जल्दी उठ जाऔ”
‘अरे मैं तौ जा के मारे कै रयी ऊं, वो मरौ बजार कौ कछु खावे नाएँ और मोय देख कै वो हत्यारौ चीख चीख मार कै घरै हिला देगौ… खाने उ ऐ छोड़ जावैगौ’
हालांकि तब तक मालकिन नहा कर रसोई में पहुँच चुकी होती थी।
और जब मौका मिलने पर खाने के लिए उस टिफिन को खोलता तो उसमें नमक अजमायन के पराँठे के अलावा चीनी के पराँठा भी रखा हुया मिलता तो मारे गुस्से के लगता तो ऐसा कि यहीं से दहाड़ मार कर दोनों सास बहुओं के लाड़ की खबर ले लूँ….
गुस्से में बिना खाये टिफिन को बंद कर देता लेकिन अगले ही पल ना जाने कौन सी मुस्कराहट चेहरे पर आ जाती और भूख फट पड़ती…
मतलब हमारा वज़न घटना नहीं था तो घटना ही नहीं था।
मईयो के मारे एक यही खाना खाने की आफत ही नहीं थी… अक्तूबर की हल्की सी पछईयां हवा से ठंड की सुरसुराहट शुरू हुयी नहीं कि –
‘लाला कान बांध कै निकरियो’
‘देख बिना सूटर के जा रयौ ऐ… कैसी ठंडी हवा चल रई ऐ…’
अपने जोड़ों के दर्द का एहसास करते करते कहती –
‘जेई ठंड नस नस में घुस जावै… हमेशा हमेशा कू देई कौ दर्द बन जावेगौ’
लेकिन मुझे ध्यान नहीं है कि मैंने मईयो की उस कातर इच्छा का कभी भी मान रखा हो।
समय की गति के साथ घर की रसोईयां अलग हुईं…. मईयो कमज़ोर भी होती गयी… लेकिन उसके दिमाग में अपने तीनों बेटों के खाने का मीनू उनका स्वेटर, मफ़लर, दूध, काम धंधे की फिकर कभी भी एक पल को कम नहीं हुई…
साथ में मईयो में एक खतरनाक आदत और भी थी, वो रहती तो बीच वाले भाई के यहाँ थी, लेकिन उसके प्राण लगातार हम छोटे और सबसे बड़े भैया के साथ भी लगे रहते…
इस रसोई में जा उस रसोई में देखना… खाने की पूछताछ के अलावा एक घर में जो आए उसको दूसरे बेटों के यहाँ आना भी सुनिश्चित करना आदि ऎसी आदतों से हम बेटों को हमेशा डर लगता कि मईयो कहीं बहुओं की बुरी ना बन जाये।
एक दिन मईयो चली गयी…
कनागत शुरू होने पर गयी।
और दिवाली आई… चाचा (पिताजी) काफी पहले चले गए थे… 15 साल बड़े भैया एक साल पहले ही गए थे… इस प्रकार वो दिवाली पहली ऎसी दिवाली थी जो कि बिना किसी बड़े के चरण स्पर्श और आशीर्वाद लिए मनाई थी…
पूजन भोजन आदि से निपट कर आँख लगी ही थी कि आँखों में खुरखुरा स्पर्श सा लगा… नींद कुछ हल्की सी हुई, लेकिन अगले ही कुछ क्षणों में बेटे की ज़ोर की आवाज़ से नींद खुल सी ही गईं… वह सोते में काजल लगाने पर नींद में विघ्न पड़ने पर अपनी माँ पर चीख रहा था…
मालकिन कह रही थी – ‘दिखा लै ज़ोर मो पै… देख लै अपने पापा कू, मईयो पै कैसे डकराते… आज देख लै कैसे चुपचाप लगवा लौ जे काजल’
उनींदेपन से होश में आया… समय के साथ साथ मालकिन की कोमल उंगलिया कब मईयो की तरह खुरदुरी हो गईं इसका अहसास कभी हो ही नहीं पाया था सो नींद में यही एहसास हुया था कि मईयो ने दिवाली वाला काजल लगाया है…
नींद टूट गयी थी और यथार्थ सामने आ गया था… लेकिन आँखों पर खुरदरी उंगलियों के स्पर्श ने मइयों की मौजूदगी का जो अहसास कराया था उसको भूलने का मन नहीं कर रहा था… आँखें भीग चलीं थीं… करवट लेते लेते उनसे धारा बहने लगी थी।
अब मालकिन का मीनू… हर समय के खाने पीने की रट अपने बेटे बेटी के लिए बिलकुल हमारी मइयो जैसा सरदर्द बन चुकी है… जाड़े में स्वेटर कैप मफ़लर की ज़िद तो गर्मी में बेटे को अँगौछा लेकर निकलने के लिए होने वाला माँ बेटों के क्लेश का शोर खीज नहीं दिलाता… बल्कि एक कोमल एहसास दिलाता है।
और यदा कदा मालकिन बेटे से पस्त हो जाती है और अंतिम अस्त्र चलाती है – ‘मरे, मो पै यी दिखा लै अपनौ ज़ोर… देख लै पापा कू कोई है तौ नाएँ कोई टोकबे वारौ… अब जे कोई पै चों ना चीख लें…’
और हमेशा ही मालकिन का ये डायलॉग मर्म को बुरी तरह भेद जाता है, और मेरे मुस्कराते चेहरे की आँखें सहसा द्रवित किए बिना नहीं रह पाती।