जब ज्ञान बंधन से मुक्त होगा तब ‘प्राप्तांकों’ की बेड़ियों से मुक्त होगी शिक्षा

मित्रों! गत कुछ दिनों से दो विषयों पर ज्ञान प्राप्त हो रहा है।

पहला तो यह कि बोर्ड की परीक्षा में जिन बच्चों ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है उनको लक्षित कर यह लिखा जा रहा है 90-95-98% अंक लाने वाले बच्चे जीवन में ‘ये नहीं कर पाते, वो नहीं कर पाते… फलां फलां’।

मुझे इन विचारों से कोई आपत्ति नहीं। आपका कथन सत्य है कि परीक्षा में प्राप्त अंक जीवन की प्रत्येक कठिनाई से जूझने का मार्ग नहीं दिखाते।

मेरी आपत्ति इस पर है कि जिस विषय पर सालभर विमर्श होना चाहिए उसपर उसी समय टिप्पणी का क्या औचित्य है जब कोई बच्चा मेहनत कर अच्छे अंक ले आया है। परीक्षा में अच्छे अंक लाने पर बच्चा केवल इस बात पर प्रसन्न होता है कि उसकी मेहनत रंग लाई।

एक हाई स्कूल का बच्चा शिक्षा नीति की बड़ी-बड़ी बातें नहीं समझता। उसे केवल इस बात का संतोष होता है कि उसने जो वर्षपर्यंत मेहनत की उसका उसे फल मिला। आप अपनी विद्वता झाड़कर उसके मनोबल को क्यों गिराते हैं? मुझे व्यक्तिगत रूप से आठ वर्ष पढ़ाने का अनुभव है। बच्चों की पढ़ाई कुछ नहीं होती, उनका मनोविज्ञान सब कुछ होता है।

मैं जिस बच्चे की पढ़ाई बीच में छोड़कर दिल्ली आया उसके 85% आए हैं। मुझे उसकी मानसिक क्षमता पता है लेकिन फिर भी मैंने उससे यह नहीं कहा कि तुम्हारे नम्बर कम हैं या ज्यादा हैं। वह बालक प्रसन्न है, इसी में मेरी प्रसन्नता है।

शिक्षा नीति की बातें उसके वय के बच्चे के दिमाग में नहीं घुसेंगी इसलिए मैंने हमेशा अपने छात्रों को करियर सम्बंधी ज्ञान दिया। मैं कभी नम्बर की बात ही नहीं करता था।

जब आप ‘अच्छे’ या ‘बुरे’ मार्क्स के पक्ष अथवा विपक्ष में चर्चा कर रहे होते हैं तो आप समस्या पर सर खपा रहे होते हैं। मैं बच्चों को समाधान बताता था। मैंने जिन बच्चों को भी पढ़ाया उनके मस्तिष्क में ढेर सारे करियर ऑप्शन भर दिए। जीवन में कभी भी यदि कम अंक के कारण वह बच्चा कहीं भी रुकेगा तो उसके पास आगे बढ़ने के लिए ढेर सारे विकल्प होंगे। तब वह मुझे याद करेगा कि फलाने टीचर ने मुझे ये बात बताई थी। बाकी शिक्षा नीति पर विमर्श के लिए बहुत समय होता है जिसका बुद्धिमान लोग सदुपयोग नहीं करते। अस्तु।

दूसरा ज्ञान यह दिया जा रहा है कि मतदान अवश्य करें। मैं इससे भी पूर्ण सहमत हूँ। लेकिन इस बार मैं मतदान नहीं कर पाऊँगा क्योंकि घर नहीं जा पाऊँगा। मैंने 2014 में मतदान किया था, फिर योगी जी को भी वोट दिया था। मुझे चुनाव परिणाम की उतनी चिंता नहीं है जितनी हिन्दू समाज के मानसिक उत्थान की।

कुछ दिनों पहले मैं एक मित्र से मिला। उन्होंने मुझे एक सूची दिखाई जिसमें कुछ दिवस लिखे थे जो विशेषकर हिंदुओं के लिए प्रासंगिक हैं। मई माह में 9 मई को आदि गुरु शंकराचार्य की जयंती लिखी थी, उसके बाद 10 मई को रामानुजाचार्य जयंती, 19 को बुद्ध, 20 को नारद जयंती और 28 मई को सावरकर जयंती।

मैंने पूछा, “महाराज इसमें 11 मई राष्ट्रीय तकनीकी दिवस क्यों नहीं लिखा?” इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं था।

उन सज्जन की बात छोड़ देते हैं, वे मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं। अब आप लोग मुझे बताइये कि आज के युग में विज्ञान एवं तकनीकी के बिना किसी राष्ट्र का अस्तित्व संभव है?

कार्ल सैगन का प्रसिद्ध कथन है कि विज्ञान का उपयोग सभी करते हैं लेकिन उस पर विमर्श कोई नहीं करता। प्रत्येक 11 मई को हम लोग श्रद्धेय अटल जी को याद करके इतिश्री कर लेते हैं। लेकिन मुझे आगामी 23 मई की प्रतीक्षा है क्योंकि उसके बाद मैं नरेंद्र मोदी की बात नहीं करूँगा।

मैं भारत की उस सांस्कृतिक धरोहर की बात करूँगा जो कश्मीर केरल और बंगाल में समाप्त होती जा रही है। मैं भारत की मूल्यवान ज्ञान संपदा की बात करूँगा जिसपर विमर्श नहीं होता। मैं मतदान नहीं कर पाऊँगा और इस दुःख के साथ जी लूँगा लेकिन यह सहन नहीं कर पाऊँगा कि मैंने जीते जी देश की ज्ञान परम्परा में कोई योगदान नहीं दिया।

आज भी सोशल मीडिया पर हिंदुत्व और सनातनी विमर्श का स्तर ‘गयासुद्दीन गाज़ी’ की बकवास से ऊपर नहीं उठ पाया है, मुझे इसकी चिंता अधिक है। जब हिन्दू समाज में विमर्श हिंदुत्व केंद्रित होते हुए स्तरीय होगा तब सही मायने में भारत का उत्थान होगा। जब ज्ञान बंधन से मुक्त होगा तब ‘प्राप्तांकों’ की बेड़ियों से शिक्षा मुक्त होगी। तब नवीन भारत का उदय होगा।

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