इस चुनावी वातावरण में एक ऐसी जानकारी मिली है जो प्रासंगिक तो नहीं है लेकिन फिर भी भारत की जनता के लिए जानना ज़रूरी है ताकि उसको इसका संज्ञान रहे कि भारत को इस नेहरू-गांधी परिवार ने कितनी क्षति पहुंचाई है।
नेहरू ने स्वतंत्रता के बाद से जो सोशलिज़्म की आड़ में अपनी क्षुद्रदृष्टि से भारत की आर्थिक नीतियों का विष बोया था, उसी ने भारत को सात दशकों तक रुग्ण बनाये रखा है।
यदि हम राहुल गांधी द्वारा दिए गए भाषणों का अध्ययन करें तो हम पाएंगे कि नरेंद्र मोदी पर आक्रमण करने के लिए जिस विषय का प्रमुखता से प्रयोग किया गया है, वह मोदी सरकार द्वारा राफ़ेल युद्धक विमानों की खरीद है।
राहुल ने राफ़ेल सौदे में जहां भ्रष्टाचार का अनर्गल आरोप लगाया है, वहीं इस बात का भी आरोप लगाया है कि मोदी सरकार ने भारतीय सार्वजनिक उपक्रम ‘हिंदुस्तान ऐरोनेटिक लिमिटेड’ (एचएएल, HAL) की अवहेलना करके, राफ़ेल युद्धक विमानों को बनाने का काम निजी क्षेत्र में दिया है।
आज राहुल एचएएल पर रो रहे हैं, वहीं एचएएल व ऐसी ही अन्य सार्वजनिक उपक्रम उनकी दादी इंदिरा गांधी व दादी के पिता नेहरू पर रो रहे हैं।
स्वतंत्रता के बाद, भारत को आर्थिक रूप से सुदृढ़ व पूंजीवादियों के एकाधिकार को समाप्त करने के लिए जब यह सार्वजनिक उपक्रम बनाए गए थे तब निश्चित रूप से उस वक्त के मनीषियों ने इसको लेकर जो मानचित्र खींचा था वह राष्ट्र हित को सर्वोपरि रख कर खींचा था।
लेकिन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू का समाजवाद व पूंजीवाद को लेकर दृष्टिकोण इतना क्षुद्र था कि उन्होंने, सार्वजनिक उपक्रमों की मूलभूत आत्मा को अपने कार्यकाल में ही मार डाला। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि ये उपक्रम न सिर्फ रुग्ण व भारत पर आर्थिक बोझ बन गए बल्कि भारत व भारतीयों के आर्थिक विकास व स्वावलंबन की प्रक्रिया को लंगड़ा कर दिया।
आइये, अब इतिहास में देखते है कि कैसे नेहरू ने, अपने पर-नाती राहुल के प्रिय सार्वजनिक उपक्रम एचएएल का सत्यानाश किया था। उन्होंने कैसे भारतीयों की उद्यमिता व उनकी नैसर्गिक प्रतिभा को कुंद किया था।
आज यदि किसी से पूछा जाय कि भारत मे बनी पहली भारतीय कार कौन सी है तो मुझ को विश्वास है कि सभी लोग ‘मारुति’ का नाम लेंगे, हालांकि यह भी सत्य नहीं है क्योंकि वह जापानी कम्पनी सुज़ुकी के साथ एक जॉइंट वेंचर है। लेकिन यह पूरी तरह से असत्य है।
क्या आज आप यह विश्वास करेंगे कि भारत में पहली विशुद्ध रूप से भारतीय कार का निर्माण, 1964 में हुआ था और उसका निर्माण एचएएल ने किया था?
जी हां, एचएएल के इंजीनियरों ने एक नहीं बल्कि 100 कारों का निर्माण किया था! ये कार, शतप्रतिशत भारतीय थी, इसकी डिज़ाइन से लेकर इंजिन तक सब एचएएल में ही बना था।
एचएएल ने जब, उस जमाने में बनने वाली अम्बेसडर व फ़िएट कारों से आधी कीमत वाली 100 कारों को बनाया तब उन्होंने, भारत की सरकार से इन कारों का व्यवसायिक रूप से उत्पादन व बेचने के लिए लाइसेंस व अनुमति मांगी थी।
एचएएल द्वारा स्वदेशी कार का बनाना एक बहुत बड़ी घटना थी, लेकिन समाजवादी नेहरू के लिए एक सार्वजनिक उपक्रम द्वारा यह कार बनाना एक पूंजीवादी घटना थी, जिसका विशेषाधिकार उन्होंने पूंजीपतियों को दे रखा था। उनको एचएएल की यह उद्यमिता पसंद नहीं आई और एचएएल को कार का उत्पादन करने के लिए लाइसेंस देने से इनकार कर दिया।
इस घटना के बाद नेहरू की मृत्यु हो गयी और नए बने प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री का छोटा कार्यकाल, अकाल और युद्ध की भेंट चढ़ गया, जिससे स्वदेशी सस्ती कार के उत्पादन का सपना, सपना ही रह गया। उसके बाद इंदिरा गांधी आयी लेकिन उन्होंने भी इसका संज्ञान नहीं लिया क्योंकि उनके शब्दकोश में, अपने पिता नेहरू की तरह कार उत्पादन धनिकों का व्यसन था, जो भारत जैसे समाजवादी राष्ट्र के लिए उचित नहीं था।
इसका परिणाम यह हुआ कि एचएएल द्वारा बनाई गई 100 कारें, ‘अवैध उत्पाद’ रहीं और वे एचएएल की चारदीवारियों के बाहर कभी भी नहीं दौड़ पाई। इन कारों का उपयोग, एचएएल के भीतर ही, लोगों को लाने-ले जाने के लिए होता रहा और अंत में कबाड़ बन कर वहीं दफन हो गयीं। और उसी के साथ भारतीय उद्यमिता व सृजनशीलता को भी समाप्त कर दिया गया।
यहां यह याद रखने की ज़रूरत है कि एक तरफ नेहरू व इंदिरा गांधी ने इस स्वदेशी व सस्ती कार को बनने नहीं दिया वही 1970 में इंदिरा गांधी की सरकार ने अपनी पूर्व की नीति को बदलते हुए, छोटी व सस्ती कार के निर्माण के लिए लाइसेंस देने का निर्णय लिया और उस पर विश्व की बड़ी कार निर्माता फोर्ड, रीनॉल्ट और निसान कम्पनियों ने आवेदन किया था। लेकिन इंदिरा गांधी की सरकार ने वैश्विक प्रतिस्पर्धा पर विराम लगाते हुए, इसे भारतीय उद्योगियों को ही देने का निर्णय लिया, जो उस काल मे स्वागत योग्य था।
इस छोटी व सस्ती कार के निर्माण के लिए, उस वक्त के सभी बड़ी कम्पनियों व घरानों ने, जिन्हें इस कार व इंजन उद्योग का अनुभव था, आवेदन किया था लेकिन इंदिरा गांधी ने इसका लाइसेंस, नवंबर 1970 में ‘मारुति टेक्निकल सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड’ को दे दिया।
इस कम्पनी को कार क्या, किसी भी उद्योग का अनुभव नहीं था लेकिन उसका निदेशक मंडल बड़ा भारी भरकम था। इस मारुति के दो निदेशक थे, एक इंदिरा गांधी के छोटे पुत्र संजय गांधी व दूसरी उनकी विदेशी बहू सोनिया गांधी। इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा इस कम्पनी को लाइसेंस देना घनघोर अनियमितता थी क्योंकि किसी भी भारतीय कम्पनी में कोई भी विदेशी निदेशक नहीं हो सकता है लेकिन उसी को दिया गया।
उसके बाद, मारुति का क्या हुआ ये जगजाहिर है, मारुति कभी भी कोई कार नहीं बना पाई। अंततोगत्वा, 1980 में जब इंदिरा गांधी फिर से प्रधानमंत्री बनी तब करोड़ो के घाटे वाली इस प्राइवेट कंपनी का 1981 में सरकारी अधिकरण किया गया और इस प्रकार जापानी कम्पनी सुज़ुकी की बैसाखी में, भारत की तथाकथित प्रथम स्वदेशी व सस्ती कार का भारत मे पदार्पण हुआ है।
आज जब राहुल गांधी एचएएल रो रहे हैं, तब एचएएल और भारत, राहुल की दादी इंदिरा गांधी व उनके पिता जवाहर लाल नेहरू के कुकर्मो पर रो रहा है। मुझे इस बात का विश्वास है कि 2019 के चुनाव में, भारत की जनता, नेहरू-गांधी खानदान के द्वारा भारत पर किये गए कुठाराघात का प्रतिकार, इनको राजनैतिक रसातल पर पहुंचा कर करेगी।
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