यह चुनाव देश लड़ रहा है – इस वाक्य को कहीं मेरे अंदर से प्रतिध्वनि आती है, कि हाँ, वाकई इस चुनाव को भारत; लड़ रहा है। बता रहा हूँ क्यों।
कोउ नृप होय, हमै का हानि।
भारत की भाषा में लिखे इस वाक्य का अर्थ भारत समझ गया। हानि क्या है उसे समझ में आ गया। वैसे आजकल इस वाक्य (चौपाई नहीं कह रहा, क्योंकि इतने ही वाक्य को प्रयोग में देख रहा हूँ) को ऐसे समझा जा रहा है – कोउ नृप होय, हमै का लाभ?
इस बार भाड़े के कलमी वामपंथियों ने काँग्रेस से ठेका लेकर पढे लिखे मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग को इसी वाक्य से बरगलाने की भरसक कोशिश की – कोउ नृप होय, तुम्हें का लाभ? ‘ऐसी तैसी डेमोक्रेज़ी’ जैसे बैंड खास गाने बनाकर शहर शहर प्रोग्राम करने लगे, उनको सुनने वाले भी मिले लेकिन अंत में लगता है दिन में पाँच बार करीब से दागे जानेवाले अजानास्त्र की आवाज ने इस ज़बर्दस्ती का सेक्युलरिज़्म ओढ़े मिडिल क्लास की भी नींद आखिर तोड़ ही दी।
वैसे खबरें भी आती रहती हैं। दिल्ली के हुतात्मा अंकित सक्सेना जैसों का भी हमें आभारी होना चाहिए। बलि बनकर उन्होंने एकतरफा ट्रेफिक को एक्सपोज़ करने का काम किया है। और भी कई बातें होती हैं जो कही नहीं जाती, न कहीं उसका लिखित में सबूत मिलता है। लेकिन जो होता है यह देखते सब हैं और उससे सबक ले ही लेते हैं। कहीं न कहीं निजी लाभ नहीं, तो निजी नुकसान ही इस इल्म का सबब हुआ है।
जैसे एरिया के आने जाने के रास्ते पर अचानक मस्जिद या मज़ार प्रकट होने से घरों के भाव गिरना। या फिर हिंदुओं पर पलायन के लिए दबाव बनाया जाना। आज सोशल मीडिया के कारण बात वायरल होती है, भले ही जहां गलत होता है वहाँ भले ही गलत करनेवाले का कोई बिगाड़ नहीं पाता लेकिन अन्यत्र लोग इससे सबक लेते ही हैं।
नौकरियों में भी एक मज़हबी जिस तरह से अन्यों को घुसाता है – बहुत सरल तरीका है, स्वार्थ की नस दबाता है। जहां कोई छोड़ जाता है, अगर आप को पता न हो तो बता दूँ कि वेकन्सी भरना सस्ता नहीं होता। अच्छे पेपर में ढंग की एड लाख से कम में नहीं आती, और छोटी सी एड आप को ढंग का आदमी शायद न दें।
कंसल्टंट्स भी सस्ते नहीं पड़ते, और कोई यह गैरंटी नहीं होती कि आदमी टिका रहेगा। उसको आप से बेहतर ऑफर बहुत शीघ्र भी मिल सकती है और यह भी हो सकता है कि आप में या जो भी उसका बॉस होना है उससे आनेवाली की न पटे।
ऐसे में भाईजान के लाये हुए आदमी को देख लेने में कोई हर्ज नहीं लगता और आप के यहाँ एक और सिपाही लग जाता है। वैसे यह अवश्य कहूँगा कि आदमी सोच समझकर दिया जाता है, जो आदमी देता है उसे नज़र झुकानी न पड़े यह खयाल रखा जाता है। भरोसा कमाने के लिए यह स्ट्रेटजी आवश्यक है।
रणनीति के तहत आगे होती रिक्तियाँ भी ऐसी ही भरी जाती हैं, उसके बाद धीरे धीरे टेकओवर मोड शुरू होता है।
इनके भुक्त भोगी, भले ही ये बातें कहीं लिखे नहीं ताकि सोशल मीडिया रेकॉर्ड्स से उनको ट्रेस करके प्रताड़ित न किया जाये – अपनी नौकरी सब को प्यारी है और कोई ऐसा लिखकर ब्लैकलिस्ट होना नहीं चाहता, लेकिन बात फैलती ज़रूर है।
धंधे में सस्ते की लालच करनेवालों को भी भुगतना पड़ा है, और बिज़नस क्लास को और भी तरीकों से भुगतना पड़ा है।
बोलते भले कोई नहीं ये लोग लेकिन यह भी एक सायलेंट वेव ज़रूर है।
भारत तो हानि देख ही रहा है, ‘हमें का हानि’ का प्रच्छन्न उत्तर दे भी रहा है, हम और आप तक आयेगा नहीं क्योंकि एंकर एंकरनियों को भी नौकरी करनी है, लेकिन अब इंडिया भी “हमें का हानि” समझ रहा है।
फर्राटेदार इंग्लिश बोलनेवाले लोगों का रिस्क उठाकर आवाज़ उठाना उल्लेखनीय योगदान है। आप मानें या न मानें लेकिन इंग्लिश में यह बात सफाई से रखनेवालों की कमी ने राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व को इस पढे लिखे सेगमेंट में अवांछनीय बना दिया था।
शेफाली वैद्य जैसे स्त्री पुरुषों का इस ज़िम्मेदारी को अपनी करियर दांव पर लगाकर उठाना इसलिए ही सराहनीय है। अपने लेखन तथा सभाओं और वीडियोज़ के कारण लाखों लोगों के मन के तार वे छेड़ सकी हैं। और भी नाम हैं, सब का उल्लेख कभी और समय करूंगा।
वैसे यह लेख आप शेयर करेंगे या नहीं, मैं आग्रह नहीं करूंगा क्योंकि इसमें काफी खुलकर लिखा है, अपनी करियर का ख्याल रखिएगा। आप का बने रहना अधिक काम का है।
वैसे नौकरदार हिंदुओं को खुद को व्यक्त करने के लिए कोई pen name (छद्म नाम) रखना चाहिए ताकि लिखने और शेयर करने में झिझक न हों।
महाकाली रक्षा करें।
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