1857 का विद्रोह : भ्रम और सच्चाई

10 मई की तिथि इतिहास की महान क्रांतियों में से एक क्रांति के उद्भव की तिथि है। मेरठ में पुलिस और बाग़ी सैनिकों के साझे मोर्चे ने मिलकर क्रन्तिकारी घटनाओं को अंजाम दिया। मेरठ के गैरिसन टाउन में सिपाहियों ने सबसे पहले उपद्रव मचाया। सैनिकों के विद्रोह की खबर फैलते ही मेरठ की शहरी जनता और आस-पास के गांव विशेषकर पांचली, घाट, नंगला, गगोल इत्यादि के हजारों ग्रामीण मेरठ की सदर कोतवाली क्षेत्र में जमा हो गए।

इसी कोतवाली में धन सिंह कोतवाल (प्रभारी) के पद पर कार्यरत थे। मेरठ की पुलिस बागी हो चुकी थी। धन सिंह कोतवाल क्रान्तिकारी भीड़ (सैनिक, मेरठ के शहरी, पुलिस और किसान) में एक प्राकृतिक नेता के रूप में उभरे। उनका आकर्षक व्यक्तित्व, उनका स्थानीय होना, (वह मेरठ के निकट स्थित गांव पांचली के रहने वाले थे), पुलिस में उच्च पद पर होना और स्थानीय क्रान्तिकारियों का उनको विश्वास प्राप्त होना कुछ ऐसे कारक थे जिन्होंने धन सिंह को 10 मई 1857 के दिन मेरठ की क्रान्तिकारी जनता के नेता के रूप में उभरने में मदद की।

उन्होंने क्रान्तिकारी भीड़ का नेतृत्व किया और रात दो बजे मेरठ जेल पर हमला कर दिया। जेल तोड़कर 836 कैदियों को छुड़ा लिया और जेल में आग लगा दी। जेल से छुड़ाए कैदी भी क्रान्ति में शामिल हो गए। उससे पहले पुलिस फोर्स के नेतृत्व में क्रान्तिकारी भीड़ ने पूरे सदर बाजार और कैंट क्षेत्र में क्रान्तिकारी घटनाओं को अंजाम दिया। रात में ही विद्रोही सैनिक दिल्ली कूच कर गए और विद्रोह मेरठ के देहात में फैल गया।

इसके बाद की कहानी सभी जानते हैं, मगर इसके बाद और इसके ऊपर लिखी गयी कहानियों के माध्यम से काफी भ्रम फैलाया गया। इतिहासकारों और लेखकों ने इस देश के नागरिकों से 1857 की क्रांति के बारे में तथ्यों को तोड़ मरोड़कर पेश किया। जिससे इस विद्रोह को लेकर कई बार पशोपेश की स्थिति बनी और इस महान क्रांति का व्यापक रूप देखने व समझने से हम वंचित रह गए।

भ्रम 1. क्रांति की व्यापकता

सत्य: अगर आप शेखर बंदोपाध्याय की ‘प्लासी से विभाजन तक’ (पृ. सं. 523) या अन्य किसी ब्रितानी लेखक द्वारा लिखे शोध को पढ़ेंगे तो पाएंगे कि 1857 की क्रांति केवल उत्तरी भारत तक फ़ैली थी, जबकि दक्षिण भारत यानि मद्रास प्रेसिडेंसी शांत बैठी हुई थी। जिसका मतलब है कि दक्षिण भारत में विद्रोह फैला ही नहीं था। जबकि वास्तविकता इसके बिल्कुल ही विपरीत है। जस्टिस मैकार्थी ने हिस्ट्री ऑफ अवर ओन टाइम्स में लिखा है – ‘वास्तविकता यह है कि हिंदुस्तान के उत्तर एवं उत्तर पश्चिम के सम्पूर्ण भूभाग की जनता द्वारा अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह किया गया था।’

श्रीधर पराडकर की पुस्तक ‘1857 के स्वतंत्रता संग्राम के प्रतिसाद’ को पढ़ें तो पाएंगे कि यह क्रांति न केवल उत्तर भारत में अपितु दक्षिण के केरल, मद्रास, मैसूर, पश्चिम के गुजरात और पूर्व में ढाका, चिटगांव में भी फैली थी। उनकी इस पुस्तक में करीबन 91 ऐसे स्थानों का वर्णन है जहाँ भारत को स्वाधीन कराने के लिए वर्ष 1857 के समय में क्रांति फैली थी। इसेक साथ ही उन्होंने इन क्षेत्रों में घटित विद्रोहों का भी वर्णन अपनी पुस्तक में किया है। जिनमें से कुछ के संदर्भ मैं यहाँ भी दे रहा हूँ।

●दिसम्बर 1856 में रंगोजी बापू द्वारा सातारा में सशस्त्र संघर्ष |
●दिसम्बर 1857 जोगलेकर के नेतृत्व में  त्र्यंबकेश्वरमें ब्रिटिश सेना से मुठभेड़ |
●फरवरी 1857 पारला की मिदी (आन्ध्र) में राधाकृष्ण डण्डसेन का सशस्त्रविद्रोह|
●जून 1857 कडप्पा (आन्ध्र) की 30वीं पलटन का विद्रोह|
●जून हैदराबाद के प्रथम घुड़सवार सैन्य दल का विद्रोह|
●जुलाई 1857 मछलीपटनम में स्वंतन्त्रता ध्वज का आरोहण तथा राजमुंदरी में विप्लव|
●जगियापेट पर आक्रमण |
●जमखिंण्डी तथा बीजापुर में संगठन |
●1859-60 रोहिलों की औरंगाबाद में तथा भीलों की वैजपुर में ब्रिटिश सेना से मुठभेड़|
●1859 निजाम दरबार में डेविडसन पर आक्रमण |
●1867 सातारा के छत्रपति शाहू के भांजे रामराव की सेना का बीदर में अंग्रेजों से युद्ध
●1858 मैसूर राज्य में ब्रिटिश विरोधी प्रदर्शन|
●जुलाई 1858 वैंगलोर स्थित मद्रास की 8वीं पलटन का विद्रोह|
●1857 बेलगांव की 29वीं स्थानीय पलटन का विद्रोह |
●1858 मुण्डर्गी के भीमराव के नेतृत्व में अंग्रेजों पर आक्रमण
●1858 गोवा के दीपूजी राणे का विद्रोह
●वेल्लोर (मद्रास) की 18वीं पलटन का विद्रोह |
●1958 चिंगलपुट (मद्रास) में क्रन्तिकारी विद्रोह|
●जुलाई 1857 क्विकलोन (केरल) की 25वीं तथा 45वीं पलटन का विद्रोह|

ऐसे में यह कहना कि इस विद्रोह की व्यापकता बहुत कम और उत्तरी भारत तक सीमित थी, तो यह इतिहास को बिना पढ़े उसे अनदेखा करना ही होगा।

भ्रम 2. 1857 की क्रांति: सिपाही विद्रोह, जनता का विद्रोह यह राजनैतिक सत्ता बचाये रखने की जंग?

सत्य:1857 की इस क्रांति को यह कहकर भी खारिज किया जाता रहा है कि यह विद्रोह जनता का विद्रोह न होकर एक सिपाही विद्रोह अथवा राजनैतिक सत्ता को बचाये रखने के लिए किया जाने वाला विद्रोह था। ऐसे में वे जननायक जिन्हें जनता ने नेता, सेनानायक, स्वतंत्रता सेनानी इत्यादि उपाधियों से सुसज्जित किया था, उनके प्रति शंका की स्थिति बनने लगी। इसके अतिरिक्त कई बार यह कहा गया कि झूठी अफवाहों( कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी लगना, जिसे सिपाही दाँत से खोलते थे) के कारण फैलने वाले इस विद्रोह का उद्देश्य केवल सिपाहियों के मन को शांत करना था। मगर डगलस एम पीयर की किताब India under Colonial Rule:1770-1855 (पृ. सं. 64) को पढ़ें तो पता चलता है कि उस समय भारत देश में करीब 40,000 यूरोपीय रहते थे, जिनमें से 6000 यूरोपीय नागरिकों की हत्या हुई थी।

इससे इतना समझना आसान हो सकता है कि उस समय के राजाओं की सेना, जो अंग्रेज़ों के मुक़ाबले प्राचीन व पारंपरिक अस्त्रों व शास्त्रों से युद्ध लड़ रही थी, वह इस क़ाबिल तो नहीं रही होगी कि 6,000 से अधिक यूरोपीय नागरिकों का क़त्ल कर सके। इसके लिए आम जनता के सहयोग की आवश्यकता पड़ी ही होगी। इसलिए जब सरदार पणिकर ‘ए सर्वे ऑफ इंडियन हिस्ट्री’ में लिखते हैं -”सबका एक ही और समान उद्देश्य था – ब्रिटिशों को देश से बाहर निकालकर राष्ट्रीय स्वतन्त्रता प्राप्त करना। इस दृष्टि से उसे विद्रोह नहीं कह सकेंगे। वह एक महान राष्ट्रीय उत्थान था।” तो यह समझ में आता है कि वह कुछ राजाओं या सैनिकों की सनक मात्र नहीं बल्कि एक महान उद्देश्य की प्राप्ति यानि भारत की स्वतंत्रता का प्रयास था।

इस विद्रोह में नए नए सेनानायक उभर कर सामने आये चाहे वे मंगल पांडे हों, मेरठ में क्रांति शुरू करने वाले धन सिंह कोतवाल हों, या वासुदेव बलवंत फड़के हों। श्रीधर पराडकर की पुस्तक ‘1857 के स्वतंत्रता संग्राम के प्रतिसाद’ में ही अनेकों सेनानायकों के नाम पढ़ने को मिल जाते हैं: सतारा में रंगोजी बापू, खानादेश में भीमा नाइक, नासिक में ब्रिटिश सेना से भिड़ने वाले भागोजी नाइक, त्रयंबकेश्वर में ब्रिटिश सेना से लोहा लेने वाले जोगलेकर, आंध्र में राधाकृष्ण हुन्डसेन, सतारा में छत्रपति शाहू जी के भांजे रामा राव, मुंडरगी में भीमराव व गोवा में दीपुजी राणे जैसे सेनानी मौजूद थे, फिर इन सबके बाद यह कहना कि यह युद्ध सत्ता की लालसा या सैनिकों की सनक के कारण था, यह इन स्वतंत्रता सेनानियों के साथ सरासर अन्याय होगा।

प्रोफेसर कपिल कुमार ने तो एक साक्षात्कार में बताया कि कमल का फूल, रोटी और पत्र पूरे देश के अंदर घूम रहे थे। अंग्रेज़ खुद लिखते हैं एक एक रात के भीतर ये रोटी 200 से 300 मील तक चली जाती थी । उस समय चौकीदार की बहुत बड़ी भूमिका रही थी क्योंकि एक भी चौकीदार ने अपनी जुबान नहीं खोली कि इस कमल और रोटी घूमने का मतलब क्या है, या पेड़ की छाल छीलने का क्या मतलब है । पेशावर से लेकर बेलगांव तक और डीमापुर से लेकर शिवसागर तक पंचमहल, शोलापुर, देश के कौने-कौने में यह सुनियोजित तरीके से फैल रही थी।

इससे यह स्पष्ट होता है कि इस योजना को चलाने वाली देश की आम जनता तो थी।

भ्रम 3. क्या यह केवल चंद महीनों का विद्रोह था?

सत्य: ऐसा कहना भी अनुचित होगा कि 1857 में ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध उपजी यह क्रांति केवल चंद महीनों की थी और सावन भादो आते आते तक इसे दबा दिया गया था। इतिहासकार, वरिष्ठ चिंतक और वर्तमान में इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्विद्यालय में प्रोफेसर कपिल कुमार कहते हैं कि “1770 से लेकर 1857 तक पूरे देश के रिकॉर्ड में अंग्रेजों के खिलाफ 235 विद्रोह हुए, जिनका परिपक्व रूप हमें 1857 में दिखाई देता है। 1770 में बंगाल का संन्यासी आन्दोलन, जहां से वंदे मातरम निकल कर आया। 150 संन्यासियों को अंग्रेजों की सेना गोली मार देती है। जहां से मोहन गिरी, देवी चौधरानी, धीरज नारायण, किसान, संन्यासी, कुछ फकीर, ये सभी मिलकर विद्रोह में खड़े हुए जिन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम किया था और इसी विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों को तीस वर्ष लग गये। जहां से भारतीय राष्ट्रवाद की सबसे बड़ी नींव पड़ी, 1857 से पहले किसानों, जन जातियों तथा आम लोगों का अंग्रेजों के खिलाफ बहुत बड़ा विद्रोह रहा है।”

सोचिए 1770 से 1857 तक, यानि 87 वर्षों के कालखंड में करीबन 230 से अधिक उपद्रव हुए, यानि 1857 का विद्रोह किसी एक साल का नहीं बल्कि पिछले 87 वर्षों की छोटी क्रांतियों का बड़ा स्वरूप था। प्रोफेसर कपिल कुमार अपने एक साक्षात्कार में यह भी बताते हैं “जब मैं तात्या टोपे पर संग्राहलय के लिए एक पैनल बना रहा था तो एक वृतांत मिलता है कि 1 जनवरी 1859 को युद्ध के अंदर तात्या टोपे की मृत्यू हो गयी। बताते हैं कि 6 जनवरी को अंतिम संस्कार भी कर दिया गया। फिर एक रिपोर्ट आती है कि 6 अप्रैल को तात्या टोपे को जंगलों से पकड़ लिया गया, उस आदमी पर मुकदमा चलाकर जून के अंदर शिवपुरी में उसको फांसी दे दी जाती है । लेकिन 1864 का एक कागज मिलता है कि जिसमें एक डीएम कहता है कि मैंने 40 हजार सैनिक एकत्र कर लिए हैं और मैं असली तात्या टोपे को पकड़ने जा रहा हूं।”

साक्षात्कार में आगे बढ़ते हुए उन्होंने कहा ” ना चाहते हुए भी मैं एक प्रश्न खड़ा करता हूं कि क्या वास्तव में झांसी का रानी की मृत्यू हुई थी ग्वालियर में, क्योंकि अंग्रेजों को रानी की मौत की खबर सात दिन बाद लगी थी साथ ही रानी को बचाने में आश्रम के 782 साधुओं ने अपनी जान दी थी। वो कहते हैं कि रानी घायल थी जिसे हमने नाना साहब के पास भेज दिया और तो दूसरी स्त्री थी झलकारी बाई उसका दाह संस्कार किया गया और अंग्रेजों को बताया गया कि झांसी की रानी मर गयी है वह भी एक हफ्ते बाद में, और फिर उसकी अस्थियों को दिखा दिया गया। जिससे लगता है कि झांसी की रानी की मौत नहीं हुई। लेकिन इस पर अभी शोध बाकी है। तो अभी ऐसा बहुत कुछ है जो इतिहास में जानने योग्य है और हमारे यहां के शोध छात्रों को इस पर काम करना चाहिए।”

इन बातों से यह भी पता लगता है कि अन्य इतिहासकरों द्वारा फैलाया गया यह विचार कि 1857 का विद्रोह उसी वर्ष शुरू हुआ और उसी वर्ष समाप्त हो गया था एक झूठ है।

भ्रम 4. क्या यह विद्रोह पितृसत्तात्मक था? इसमें महिलाओं की भागीदारी थी या नहीं?

सत्य: इस प्रश्न का उत्तर तो सभी ही ‘ना’ में देंगे। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की कहानियाँ सुनने के बाद यह कोई नहीं कह सकेगा कि इस युद्ध में महिलाओं की भागीदारी नहीं थी अथवा यह युद्ध पितृसत्तात्मक था। मगर फिर भी यह भ्रम फ़ैलाया जाता है किस्वतंत्रता के लिए लड़े गए इस संग्राम में महिलाओं की भूमिका न के बराबर थी। इससे भी इतर होकर प्रोफेसर कपिल कुमार कहते हैं हमारे देश की वीरांगनाओं का इसमें बड़ा योगदान था, उस दौरान पचास-पचास महिलाओं को अंग्रेजों ने फांसी पर लटकाया है , पेड़ों से रस्सी बांध कर। आज भी बागपत और इन इलाकों के गाँव के अंदर उन पेड़ों को लोगों के द्वारा पूजा जाता है। 1857 की क्रान्ति और उस बाद की घटनाओं में इस आंदोलन में महिलाओं ने कई बार अंग्रेजों के दांत खट्टे किए हैं। मेरठ, मुज्फ्फरनगर, शामली इन तमाम जगहों पर ऐसे नाम मिलते हैं। अच्छी बात इसमें यह है कि इसमें गुर्जर, जाट, ब्राह्मण, दलित भाई बहनें और मुस्लिम समुदाय के भी हैं, इसमें ऐसी भी महिलाऐं हैं जिन्होंने झुंड बनाकर अंग्रेजों के खिलाफ काम किया और ऐसे कई उदाहरण हैं कि पति मेरठ के बाद दिल्ली लड़ाई लड़ने चला गया और फिर उनकी महिलाओं ने मेरठ में मोर्चा संभाला। इसमें अवंतीबाई का नाम आता है । यहां तक कि मध्य प्रदेश की एक गायिका का नाम भी सामने आता है जो अंग्रेजों के बीच छावनी में जाती थी तो नाच करने के दौरान अपने सैनिकों को पुड़िया में संदेश पहुंचाया करती थी। मोतीबाई, झलकारीबाई, झांसी का रानी का नाम प्रमुखता से आता है। यहां महिलाओं की जो सेना थी जो कि एक मटके में छत से अंग्रेजी सैनिकों के ऊपर गर्म तेल डालती थी। साथ ही अपनी रानी का सुरक्षा घेरा बनाकर उनकी रक्षा करती थी।

ऐसे में यह मानना कि इस संग्राम में महिलाओं की सहभागिता ही नहीं थी अथवा नगण्य थी, एक नासमझी के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगी।

केवल चंद पुस्तकों के संदर्भों व स्त्रोतों को पढ़कर लिखे गए थीसिस को भी हमने सत्य मान लिया जबकि उन विचारों में अंग्रेज़ों के विचार सम्मिलित थे। हमने इस संग्राम पर लिखे पहले ग्रंथ और सबसे अधिक विश्वसनीय ग्रंथ ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ और उसके रचयिता ‘वीर सावरकर’ के विचारों को नहीं पढ़ा। जिन्होंने डेढ़ वर्ष लंदन के ‘इंडियन ऑफिस’ में अपने आप को रिपोर्टों, पत्रों, अखबारों व अन्य स्त्रोतों के बीच खपाये रखा और ऐसा ग्रंथ लिखा जिसके प्रकाशन की ज़िम्मेदारी मैडम कामा, लाला हरदयाल, सरदार भगत सिंह ने उठाई, जिस पुस्तक का वाचन आज़ाद हिन्द फौज के शिविरों में होने लगा; जिससे डरकर अंग्रेज़ी सरकार ने उसके प्रकाशित होने से पूर्व ही उसपर प्रतिबंध लगा दिए। उस सावरकर के इस ग्रंथ में अनेकों भ्रमों का निवारण है और इनसे जुड़े तथ्यात्मक सत्य हैं।

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