हर साल 8 मई को विश्व थैलसीमिया दिवस मनाया जाता है। थैलसीमिया की समस्या दुनिया के जिन देशों में सबसे ज्यादा है, भारत उनमें से एक है। लेकिन चिंता की बात है कि भारत में अधिकांश लोगों को इसके बारे में मालूम नहीं है। खुद मुझे भी फरवरी में एक मित्र ने बताया, तब इसके बारे में मुझे पता चला।
आज वर्ल्ड थैलसीमिया डे है, इसलिए मैंने सोचा कि मुझे इस बारे में कुछ ज़रूर लिखना चाहिए। इसके बारे में जितना मैं जान पाया हूँ, उसके आधार पर मैं यहां जानकारी दे रहा हूँ। लेकिन मैं इस विषय का एक्सपर्ट नहीं हूँ, इसलिए अगर आपको इस लेख में कोई गलती मिले या आपके पास ज़्यादा जानकारी हो, तो कृपया कमेंट में बताएं, ताकि सबको उसका फायदा मिल सके।
थैलसीमिया वास्तव में कोई बीमारी नहीं है, बल्कि यह एक जेनेटिक समस्या है। इसका मतलब ये है कि यह केवल माता-पिता से ही बच्चों में जाती है।
हमारे रक्त के लाल कणों में हीमोग्लोबिन नाम का एक तत्व होता है। यह ऑक्सीजन को शरीर के अन्य तक पहुंचाने का काम करता है। शरीर में हीमोग्लोबिन बनाने के लिए दो जीन्स ज़िम्मेदार होते हैं – अल्फ़ा ग्लोबिन और बीटा ग्लोबिन। इनमें अगर कोई गड़बड़ी हो, तो वह थैलसीमिया का कारण बन सकती है। लेकिन केवल इनमें कमी होने से व्यक्ति को थैलसीमिया नहीं होता। ऐसा व्यक्ति केवल थैलसीमिया के जीन्स का ‘वाहक’ है। लेकिन अगर पति और पत्नी दोनों में यह समस्या हो, तो उनके बच्चों में थैलसीमिया होने की संभावना बढ़ जाती है।
अल्फ़ा ग्लोबिन के चार और बीटा ग्लोबिन के दो जीन्स में से जितने ज्यादा जीन्स की कमी हो, उसी के आधार पर यह तय होता है कि थैलसीमिया की तीव्रता कितनी ज्यादा होगी। उसी के अनुसार थैलसीमिया माइनर या मेजर होता है। थैलसीमिया अगर अल्फ़ा ग्लोबिन की कमी के कारण हो, तो वह अल्फ़ा थैलसीमिया और अगर बीटा ग्लोबिन की समस्या के कारण हो, तो बीटा थैलसीमिया कहलाता है।
थैलसीमिया से पीड़ित लोगों में हीमोग्लोबिन और लाल रक्त कणों की संख्या सामान्य से कम होने के कारण इनके शरीर के अंगों को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन नहीं मिल पाती। इनकी लाल रक्त कणिकाएं भी जल्दी-जल्दी नष्ट होती जाती हैं। इस कारण इन्हें थकान, एनीमिया और इस तरह की अन्य समस्याओं से इन्हें जूझना पड़ता है। अगर ऑक्सीजन की कमी बहुत ज्यादा हो जाए, तो शरीर के अंग काम करना बंद भी कर सकते हैं, जिसका सीधा मतलब ये है कि व्यक्ति की जान खतरे में पड़ सकती है।
थैलसीमिया का स्थायी उपचार ‘बोन मैरो ट्रांसप्लांट’ ही है। लेकिन यह बहुत महंगी, जटिल और दुर्लभ प्रक्रिया है क्योंकि डोनर के साथ मैच होने पर ही यह प्रक्रिया हो सकती है और वह मैच मिलना काफी मुश्किल होता है।
इसलिए दूसरा विकल्प यही है कि थैलसीमिया के मरीजों को नियमित रूप से ब्लड ट्रांसफ्यूजन करवाना पड़ता है। लगभग हर दो हफ्तों में उन्हें खून बदलवाना पड़ता है। यह भी महंगी प्रक्रिया ही है लेकिन फिलहाल कम जटिल विकल्प यही है। हालांकि उसमें एक बड़ी समस्या ब्लड बैंकों में खून की कमी की है। खासतौर पर भारत में, जहां जनसंख्या बहुत ज्यादा है, दुर्घटनाओं और बीमारियों का प्रसार भी बहुत ज्यादा है, लेकिन रक्तदान करने वालों की संख्या उसके मुकाबले बहुत कम है। इसलिए ब्लड बैंकों में खून उपलब्ध न हो पाना एक बड़ी समस्या है।
अगर स्वस्थ लोग जागरूक रहें और नियमित रूप से रक्तदान करें, तो यह समस्या बहुत हद तक दूर हो सकती है। रक्त की उपलब्धता बढ़ेगी, तो इसकी कमी भी दूर होगी और संभव है कि इसकी कीमत भी कम होती जाएगी। इसके कारण ज्यादा से ज्यादा लोगों के लिए खून उपलब्ध हो पाएगा।
थैलसीमिया का उपचार तो बहुत कठिन और दुर्लभ है, लेकिन इसे रोकथाम का एक तरीका उतना मुश्किल नहीं है। अगर विवाह से पहले ही लड़के और लड़की दोनों का ब्लड टेस्ट करवा लिया जाए, तो इस बात का पता बहुत आसानी से लगाया जा सकता है कि होने वाले बच्चों में थैलसीमिया की संभावना कितनी होगी और इस तरह इस समस्या को बहुत हद तक रोका जा सकता है।
इसके द्वारा थैलसीमिया को होने से पहले ही रोका जा सकता है। लेकिन जिन लोगों को थैलसीमिया हो चुका है, उन्हें तो आपके रक्तदान की ही ज़रूरत है।
इसलिए मेरा आपसे अनुरोध है कि कृपया आप ये दो काम ज़रूर करें। एक तो आप नियमित रूप से रक्तदान करें। दूसरा आप थैलसीमिया के बारे में अन्य लोगों को भी जागरूक करें। आपके ये दो प्रयास अनगिनत लोगों की ज़िंदगी बचाने में मददगार साबित हो सकते हैं। कम से कम इतना तो हम सभी को करना ही चाहिए।