किताबी रट्टा सबसे बड़ा सट्टा होता है ज्ञान के हनन का। सर मैं टॉप करने से रह गया/रह गई। मुझे highest चाहिए था इत्यादि इत्यादि।
अच्छे संस्थान तभी हो सकते हैं जब अच्छा बीज बोया जाएगा, और केवल बीज बो देने से काम नहीं चलता पूर्णतः बुआई खाद के साथ पोषित करना पड़ता है, तभी बीज अंकुरित होकर पेड़ बनता है।
यहाँ भ्रमित होने की बात नहीं है, न ही मैं कोई कृषि सम्बन्धी बात कर रहा हूँ, मैं बात कर रहा हूँ ज्ञान की सार्थकता की। एल के जी से शुरू होकर एक एक सीढ़ी चढ़ते जाते हैं, और किसी गेम के लेवल की तरह आगे ही आगे बढ़ते जाते हैं, आप round क्लियर तो कर लेते हैं, परन्तु क्या जो पिछले लेवल अपने पास किये हैं उनका कुछ भी ध्यान में रखा है।
किताबी रट्टा सबसे बड़ा सट्टा होता है ज्ञान के हनन का। आप जब तक ज्ञान को दाएं बाएं की जानकारी से नहीं जोड़ते, अपने आस पास को नहीं पढ़ते, तब तक कैसे आप आने वाली पीढ़ी को नवनिर्माण की बागडोर दे सकते हैं।
स्व चेतना को ख़त्म किया जा रहा है, यही तो ज्ञान की ऊर्जा का स्रोत है, व्यक्ति के विकास का स्रोत है। फलां लेखक ने लिख दिया, मान लिया, उसके साथ साथ ख़ुद की चेतना का बोध किधर है, वो विकसित करना बहुत ज़रूरी है।
कला केवल कला ही नहीं है, कला की किलकारी है, ये तभी गूँजेगी जब सजग होंगे अपने ज्ञान के लिए। प्राचीन में गुरुकल होते थे जहाँ बच्चे को क़िताबी ज्ञान के साथ साथ व्यावहारिक (प्रैक्टिकल) ज्ञान भी दिया जाता था, जिससे उसका बौद्धिक विकास अच्छे से होता था।
10+2+3 शिक्षा प्रणाली ने केवल और केवल अंक तक ही सीमित कर दिया है। लेकिन दाएं बाएं के साहित्य को नदारद कर दिया है। क्योंकि पाठ्यक्रमों में विशेषतः निर्धारित किया हुआ है कि इसी में से ही आएगा, और कोई क़िताब न पढ़ी जाएं।
अब भला सोचिये, वहीं पर ही विकास की गति पर बाँध लगा दिया गया है। उससे बाहर नहीं जाना है। जब तक बाहर नहीं जाओगे तो कैसे ख़ुद को बेहतर बनाओगे, ऐसे तो आप भीड़ का हिस्सा बनोगे।
Creativity, सृजनत्मक्ता पर अंकुश सा लग गया है, पढ़ना सभी चाहते हैं, पर क्या पढ़ना है ये कोई नहीं जानता, मेरा पसंदीदा यह है, मेरा यह है, फ़लां ने ख़ूबसूरत लिखा है, लेकिन लिखा कैसे है, ख़ुद को तपा करके लिखा है, ये गुण पैदा करना अपने आप में बड़ी बात होती है।
भगत सिंह ने कम उम्र में जेल में रह कर साहित्य पढ़ा, भारतेंदु ने 35 वर्ष के जीवनकाल में नाटकों का साहित्य रचा, और भी उदाहरण हैं, क्या ये ज़रूरी नहीं ये पीढ़ी इनसे अछूती हो चुकी है, क़िताबें पढ़ने का स्टाइल बदल गया है, tab ले आइये, मोबाइल पर पढ़िये, वो पीढ़ी क़िताब को छू भर सकने में ही ओझल हो रही है….
अब ये महत्वपूर्ण हो गया है कि हमने अपने भाई बंधुओं को गुड मॉर्निंग का संदेश नहीं भेजा, स्नेप चैट पर कितने लोगों ने देखा, इंस्ट्रा पर कितने फॉलोवर्स बढ़े, ट्विटर पर कितनों ने ट्वीट किया आदि आदि।
अब बहुजन हिताय की बजाये स्वान्तः सुखाय तक ही सीमित हो गए हैं। सड़क बनाने की प्रक्रिया आज भी वैसे ही है जैसे प्राचीन में होती थी, इसी तरह ज्ञान का प्रसार भी शनैः शनैः होता है, फ़ास्ट फॉरवर्ड में कुछ भी नहीं होता।
रामचरितमानस को लिखने में 2 वर्ष 7 माह 16 दिन लगे थे। तब कहीं जाकर भारतवर्ष को श्रेष्ठ साहित्य प्रदान हुआ था। आजकल तीव्रता इतनी है कि रातों रात प्रकाशक के साथ मुनादी तय करके क़िताब नई निकाल लेते हैं ताकि इंटरव्यू में ए पी आर पूरा कर सके।
हमें जल्दी में सब कुछ चाहिए, जल्दी में खाना चाहिये, जल्दी में हैं, इसी जल्दी जल्दी में हम जल्दी ही अपने हनन की ओर आ जायंगे। बीज को पौधा बनने और पौधे से घना पेड़ बनने में समय लगता है, लेकिन हम बीज को ही ओवरडोज़ खाद देकर उसे ज़मीन में ही नष्ट कर रहे हैं।
बच्चों का IQ अब विस्तृत इतना नहीं रह गया है क्योंकि हम उस पर ज़बरदस्ती अपने सपनों को हावी करते हैं। रट्टा मारकर बच्चे की जिंगल बेल पढ़ाई जाती है, ट्विंकल लिटिल स्टार पढ़ाई जाती है, कभी मर्म नहीं बताया जाता। क्योंकि मर्म बताने के लिए स्व को भी मालूम होना चाहिए।
आज प्राथमिकताएँ बदल गईं हैं, बटन दबाती संस्कृति में अब बटन दबाना ही रह गया है, एक बटन दबाने से दरवाज़ा ख़ुल जाता है, एक बटन दबाने से ऐसी ऑन होता है, और डिजिटल क़िताब के पन्ने भी पलटते जाते हैं, पर किताब को पकड़कर सीने पर रखने का सा सुख कहाँ है। सृजनात्मक की स्वाभाविकता ख़त्म सी हो गई है, अंकुश सा लग गया है।
— डॉ संगम वर्मा