दृश्य
लेखिका बनी पल्लवी जोशी से कमेटी अध्य्क्ष मत के लिए हाथ उठाने को बोलते हैं…
पल्लवी – “कौन सा वाला हाथ उठाना है” (व्यंग से भरी मुस्कान संग)
पंकज त्रिपाठी – “मैडम जिस हाथ से आप लिखती हैं (यानी राइट हैंड यानी दायां हाथ)
आपको इस दृश्य से में किसी तरह का पोलटिकल सटायर नज़र आया?
नहीं तो अब सोचिए इस फ़िल्म की स्तर की गहनता को और एक दर्शक नहीं, एक भारतीय नागरिक के रूप में, मतदाता के रूप में अपने बौद्धिक स्तर को।
कौन सा हाथ सीधे-सीधे व्यंग होता है, कौन सी विचारधारा रखूं यहां वामपंथी या कोई और?
और जवाब बोलता है वो हाथ जिससे आप लिखती हैं यानी सीधा राइट हैंड यानी वामी सोच से परे एक भारतीय की सोच को रखिए।
Tashkent Files, जब इस मूवी का टीज़र देखा तभी भविष्यवाणी की थी ये फ़िल्म कोई निर्णय नहीं देगी, ये फ़िल्म सिर्फ eye opener है, जो भारतीय मतदाता को सवाल देगी और उसके बाद ज़िम्मेदारी हमारी और आपकी बनती है कि इन सवालों का जवाब मांगे नहीं, तो इतना करें कि बुद्धिजीवी बन अपनी डेमोक्रेसी को पुनः परिभषित करें अपने स्तर पर और फिर अपने वीटो पावर जो कि हर नागरिक के पास है उसका प्रयोग कर अपना मतदान सुनिश्चित करें सही व्यक्ति के लिए।
Tashkent Files फ़िल्म ‘एक रुका हुआ फैसला’ की तरह की एक मुद्दे पर एक गठित कमेटी द्वारा अलग-अलग क्षेत्र के 8 सदस्यों द्वारा एक सर्वसमिति से राय चाहती है कि क्या हमारे स्वतंत्र भारत (इस बात पर हमेशा ज़ोर दीजिएगा “स्वतंत्र भारत “…जब शास्त्री जी की मृत्यु की बात हो) के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी की मृत्यु हुई थी या किसी तरह की षडयंत्र के चलते उनकी हत्या हुई?
फ़िल्म शुरू होती है KGB (सोवियत रूस की सिक्योरिटी एजेंसी) के एक एजेंट की कुछ महत्वपूर्ण फाइल्स के रहस्य को खोलने से, जिसमें ये लिखा होता कैसे विश्व के कई नामी राजनेताओं की हत्या हुई और उसमे किस किस का हाथ था।
दृश्य बदलता है भारत की राजधानी दिल्ली में एक न्यूज़पेपर की रिपोर्टर रागिनी (श्वेता बसु ) पर आता है जो कि अपनी नौकरी को बचाने के एक तहलके से भरी पॉलिटिकल न्यूज़ ढूंढ रही है। एक अज्ञात कॉलर उसे एक गेम में इन्वॉल्व कर कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों संग एक मुद्दा देता है और वो मुद्दा होता है शास्त्री जी की मौत का रहस्य?
रागिनी इसे पब्लिश करती है, वो लाइमलाइट में आना शुरू हो जाती है… राजनैतिक हड़कम्प। तत्कालीन गृहमंत्री नटराजन (नसरुद्दीन शाह) को विपक्ष के नेता श्याम सुंदर त्रिपाठी (मिथुन चक्रवर्ती) घेरते हैं। आपसी दबाव में आके एक कमेटी बनती है जिसकी हर गतिविधि स्क्रिप्टेड, हर सदस्य तयशुदा होता है, परंतु सदस्य अपनी सोच अपने व्यक्तिगत आधार पर तयशुदा सोच से निकल शास्त्री जी की मृत्यु के रहष्य को समझने लगते हैं, लेकिन इस तयशुदा गेम के बिखरने से बौखलाया नटराजन रागिनी को रोकने की कोशिश करता है।
लेकिन रागिनी अंत तक कमेटी का हिस्सा बन अपने तथ्यों को रखती है, जिसमें सवाल और साक्ष्य दोनों होते हैं कि भारत के दूसरे प्रधानमंत्री शास्त्री जी की मृत्यु आकस्मिक नहीं थी और क्यूँ इस मृत्यु को रहस्य ही रखा गया।
फ़िल्म बहुत महत्वपूर्ण सवाल छोड़ती है जैसे कि वैज्ञानिक भाभा की मृत्यु शास्त्री जी की मृत्यु के तेरह दिन बाद हुई रहस्यमयी तरीके से, कैसे?
क्या था भारत का परमाणु प्रोजेक्ट जो भाभा और शास्त्री जी ही जानते थे? क्यूँ नहीं हरित क्रांति और दुग्ध क्रांति के जनक शास्त्री का देश नहीं ये?
क्या था डगलस के वक्तव्य का अर्थ जिसमें उसने कहा कि गौमूत्र पीने वाला, गौ की पूजा करने वाला टोपीधारी एक जोकर वैज्ञानिक से मिल आगे आएंगे उड़ा दो इन्हें?
क्यों इमरजेंसी के बाद संविधान में अनावश्यक रूप से समाजवाद शब्द जोड़ा गया?
क्या ज़रूरत थी इस समाजवाद की? क्यों बोस की हत्या कुछ भारतीय ही करना चाहते थे जिससे उन्हें गुमनाम होना पड़ा?
क्यों देश के प्रधानमंत्री के घर वालों को आज तक ये अधिकार नहीं मिला कि वो पोस्टमार्टम के लिए बोल सकें और सबसे महत्वपूर्ण the kgb and the world part 2 किताब के वो महत्वपूर्ण तथ्य जो भारत के उस एक व्यक्तिव को नंगा करते है और कहते हैं कि भारत आज़ाद हुआ पर वहीं से उसकी दूसरी गुलामी तय कर दी और वो ग़ुलामी थी प्रजातंत्र में एक घराने एक सरनेम की ग़ुलामी, उसके षडयंत्र और खेल की ग़ुलामी।
फ़िल्म का निर्देशन बहुत कसा हुआहै। विवेक रंजन अग्निहोत्री ने एक और मास्टर पीस दी बुद्धा इन अ ट्रैफिक जाम के बाद दिया है। स्क्रिप्ट एक रहस्य को साथ ले चलती है, साथ ही तथ्यों को भी रखती है और सलाम है फ़िल्म की स्क्रिप्ट लिखने वाले को, और पहले टीम ने जो भी रिसर्च की उसे भी सलाम है।
मेरे हिसाब से इतनी साफ सुथरी और इतने प्रभावी तरीके से शास्त्री जी की मृत्यु के रहस्य को रखने वाली फिल्म को टैक्स फ्री कर स्कूल कॉलेज में दिखाना चाहिए ताकि भावी मतदाता जिज्ञासु बने न कि नौकरी माँगने वाला बालिग।
विवेक को एक बार और धन्यवाद फ़िल्म के डायलॉग के लिए, क्या संवाद लिखे हैं, ताली बजाने का मन कर रहा था और मैंने नहीं पर कई यूथ ने ताली बजायी।
Hats Off विवेक।
कलाकार ……उफ्फ …..भीड़ में भी एक एक कोहिनूर हो जैसे। प्रकाश बेलवाड़ी, पल्लवी जोशी, विश्व मोहन वाडोल, राजेश शर्मा, विनय पाठक, पंकज त्रिपाठी, प्रशांत गुप्ता ….सब ने गज़ब एक्टिंग की है।
मिथुन और श्वेता बसु लीड रोल में माने जाएंगे और मैं श्वेता को धन्यवाद देती हूं कि ट्रैक से उतरने के बाद वो वापस आयी और बेहद सशक्त रूप में।
गीत संगीत की कोई भूमिका नहीं थी, पर थोड़ा बैकग्राउंड म्यूजिक व्यथित करता है क्योंकि ऐसी फिल्मों में बैक ग्राउंड म्यूजिक न हो या हो तो बहुत ही अलग वो कहीं कहीं चुभता है।
फ़िल्म विश्लेषण तो है शास्त्री जी की मौत का क्योंकि भारत की राजनीति का आज जो परिदृश्य है ऐसे समय इस विषय पर इतने ज्वलंत तथ्य रखना एक जोखिम भरा काम है पर ये काम हुआ है।
और हां आप वाहियात न्यूज़ पोर्टल और उल्टे हाथ वालों की रेटिंग न पढ़ें। बस आंख मूँद कर लोकतंत्र और इस लोकतंत्र के लाल को सोचे और टिकट बुक करें और अपने आप को रिकॉल कर भारत के जागरूक मतदाता बने।
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