पिछले दिनों पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने अभिनेता विवेकानंद ओबेरॉय का साक्षात्कार लिया। विवेकानंद अपनी आने वाली फ़िल्म पीएम नरेंद्र मोदी के प्रोमोशन के लिए इंडिया टुडे पहुँचे थे। उन्होंने राजदीप सरदेसाई के अटपटे सवालों की अच्छे से धुलाई कर दी। मगर राजदीप की इस मानसिकता पीछे का विश्लेषण मैं आपको बताता हूँ।
वास्तविकता में निष्पक्षता का चोला ओढ़े पत्रकारों की यह जमात किसी न किसी पूर्वाग्रहों से ग्रसित होती है। राजदीप भी उसी पूर्वाग्रह के शिकार हैं। कुछ वर्षों पहले जब हिंदुस्तान टाइम्स ने एक कॉन्क्लेव का आयोजन किया था तो राजदीप भी उसमें एंकर थे, और यह उनका सौभाग्य था कि उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का साक्षात्कार लिया था।
उस कॉनक्लेव का विषय विकास था, मगर राजदीप के प्रश्न थे कि केवल गुजरात दंगों पर ही सिमटे थे। अब मोदी तो सहिष्णु हैं नहीं, इसलिए उन्होंने राजदीप को अपनी ही भाषा और लहज़े में लताड़ लगाई। बार बार घूम फिर कर विकास से जुड़े प्रश्नों को छोड़कर राजदीप गुजरात दंगों को ही बीच में ला रहे थे और चाह रहे थे कि मोदी माफ़ी मांगें जनता से।
अब जब विषय उस समय तक कोर्ट में था और मोदी इस प्रश्न का एक बार जवाब दे चुके थे तो क्या आवश्यकता थी एक ही प्रश्न को बार बार पूछने की? क्या मुख्यमंत्री अन्य प्रश्नों के लिए जवाबदेह नहीं है? या मुख्यमंत्री ने इतने अच्छे काम किये कि आपके पास सवाल ही नहीं बचे उनसे करने को?
रविश कुमार, बरखा दत्त, पुण्य प्रसून वाजपेयी और राजदीप सरदेसाई इसी मानसिकता से ग्रसित हैं। वे चाहते हैं कि राजनेताओं को उनकी ग़लती दिखाएँ, किसी भी विषय पर ख़ुद ही निर्णय सुना देते हैं; जबकि निर्णय सुनाने के लिए, कर्मों का फल देने के लिए देश में संविधान द्वारा न्यायालय की व्यवस्था है। न्यायालय लेगा इन सभी मामलों पर फ़ैसला, न्यायालय पर भरोसा क्यों नहीं रख पाते ये पत्रकार?
आख़िरी में ये पत्रकार भी वही करते हैं जिसके लिए वे मोदी भक्तों को कोसते हैं; “न्यायालय पर भरोसा नहीं”, “आप कौन होते हैं फ़ैसला सुनने वाले?”, “आप देशभक्ति या देशद्रोही का सर्टिफिकेट कैसे दे सकते हैं?”
तो क्या सेक्युलर होने का सर्टिफिकेट राजदीप व उनकी मीडिया श्रेणी दे सकती है? वह कौन होती है यह तय करने वाली कि मोदी मुस्लिम विरोधी है या नहीं? वह कौन होती है यह तय करने वाली कि मोदी दोषी हैं या नहीं?
पत्रकारों की यह जमात घुमा फिराकर लोगों से केवल अपनी बातें मनवाने की फ़िराक़ में रहते हैं, और चाहते हैं कि यह साबित हो जाए कि धरती पर अगर कोई निष्पक्ष भगवान है तो वो यह पत्रकार जमात है। गंगोत्री से अगर कोई पवित्र गंगा निकलती है तो वो केवल पत्रकार गंगा है और कोई नहीं।
ख़ैर, विवेकानंद ओबेरॉय से भी साक्षात्कार में वह यही कोशिश करते रहे कि एक बार बस विवेकानन्द ओबेरॉय यह कह दें कि यह फ़िल्म एक प्रोपोगेंडा है। यानि एक षडयंत्र है, और वो जनता से यह कह सकें कि कृपया करके यह फ़िल्म मत देखिए, यह एक षडयंत्र है। राजदीप यह क्यों भूल जाते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता यदि पद्मावत व दुर्गा को अपमानित करने के लिए फ़िल्म इस्तेमाल की जा सकती है, तो ऐसे व्यक्ति की कहानी दिखाने के लिए क्यों नहीं जिससे लोग प्रभावित हैं।
राजदीप ने अपने प्रश्नों की श्रृंखला में दी एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर का भी ज़िक्र किया। उन्होंने कहा कि वह भी एक प्रोपोगेंडा फ़िल्म थी, आने वाले समय में ताशकंद फाइल्स भी प्रोपोगेंडा फ़िल्म है। ऐसे में विवेक अग्निहोत्री ने जवाब दिया ट्विटर पर और कहा कि फ़िल्म तो अभी तक रिलीज़ भी नहीं हुई है, फिर आप उसे प्रोपोगेंडा कैसे कह सकते हैं?
यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि शिक्षित और प्रगतिशील पत्रकार किसी भी फ़िल्म को लेकर बिना उसे देखे ऐसी बातें कर रहे हैं। कोई पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर ही यदि किसी के बारे में कुछ कहने लगे तो इस दुनिया में सच का अस्तित्व ही नहीं बचेगा और दुनिया में लोग ऐसे ही दोषारोपण करते रहेंगे, जो अंततः विश्व के लिए ही हानिकारक है।
राजदीप यदि यह कह सकते हैं कि यह फ़िल्म एक षड्यंत्र है तो क्या फ़िल्म बनाने वाले उसे किसी व्यक्ति की जीवनी से प्रेरित नहीं बता सकते? राजदीप ने विवेकानंद से फ़िल्म के रिलीज होने के समय पर भी सवाल पूछा और कहा कि चुनावों के बीच इसे रिलीज़ करने का क्या मतलब है? अब किसी निर्देशक को फ़िल्म कब रिलीज करनी है वह प्रोपोगेंडा को सोच कर तय करेगा क्या? वह चुनावों को सोचकर तय करेगा क्या? कोई निर्देशक जनता के खिंचे आने के लिए सही समय का इंतज़ार करता है; और इसलिए उस समय फ़िल्म रिलीज़ करता है। मगर राजदीप यहीं नहीं रुके और आगे जाकर यह भी कहा विवेकानंद से कि आप अपने दिल पर हाथ रखकर कहिए कि यह फ़िल्म प्रोपोगेंडा नहीं है।
किसी पत्रकार का अपने अतिथि से ऐसी हरकतें करवाना उसकी बचकानी हरकत को दिखाता है। ऐसा लग रहा था कि इंटरव्यू यदि थोड़ी देर और चलता तो राजदीप विवेकानंद के पैरों में गिरकर कहते कि सिर्फ एक बार मेरी टीआरपी बढ़ाने के लिए कह दो कि यह फ़िल्म प्रोपोगेंडा है।
इस स्तर पर गिरने का काम अभी तक केजरीवाल ही कर चुके हैं, मगर राजदीप उस स्तर को भी पार कर गए। शायद यही कारण है कि ऐसे बचकाने पत्रकारों को प्रधानमंत्री अपना इंटरव्यू नहीं देते, जो केवल अपनी बात मनवाने पर आमादा रहते हैं और ख़ुद को निष्पक्ष पत्रकार कहते रहते हैं; जबकि वे ख़ुद पूर्वाग्रहों, यानि पहले किसी पक्ष, को मन में बैठाए हुए हैं।
राजदीप ने यह तक कह दिया कि क्या आप नरेंद्र मोदी का कोई नकारात्मक पहलू भी दिखाएंगे? क्योंकि हर राजनेता का कोई न कोई नकारात्मक पहलू होता है। राजदीप और उनकी पत्रकार जमात इस बीमारी से पीड़ित है कि इस देश में राजनेता केवल 1947 के बाद हुए हैं, उससे पहले तो केवल पुण्यात्माएं थीं। उनके सामने कोई यदि यह कह दे कि गाँधी जी का भी कोई नकारात्मक पहलू था, गोविंद वल्लभ पंत का भी नकारात्मक पहलू था, ज़ाकिर हुसैन का भी नकारात्मक पहलू था, गोपाल कृष्ण गोखले का भी नकारत्मक पहलू था; तो या तो वे मना कर देंगे, या तो ये साबित करने लगेंगे कि वे नेता नहीं महात्मा थे; या एक और संभावना हो सकती है कि वे कह दें कि जी मैंने तो इनके बारे में पढ़ा ही नहीं, और जो मेरे पाठ्यक्रम ने पढ़ाया मैं केवल वहीं तक सीमित रहा।
राजदीप का यह साक्षात्कार बहुत ही बेचैनी भरा था। जब पद्मावत के रिलीज़ के दौरान काफ़ी विवाद हुए थे, तो राजदीप जैसे पत्रकारों की जमात अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करके कहती थी, आप भी फ़िल्म बना लो। आज जब उन्होंने फ़िल्म बना ली है, तो यह जमात उनसे चिढ़ रही है। सही मायनों में तो देश में अभी इसी काल में लोकतंत्र आया है, जब हर कोई अपनी बात रख सकता है। अपने पसंद की फ़िल्म बना सकता है। पत्रकारों की इन जमात को इसकी निंदा करने के बजाय इसका समर्थन करना चाहिए, वरना उनके ‘प्रोग्रेसिव’ होने पर सवाल उठने शुरू हो जाएंगे।