फ्रांस के एक मशहूर दार्शनिक ज्यां पॉल सार्त्र को 80 के दशक में पढ़ना शुरू किया था, लेकिन वे इतने गूढ़ थे कि कुछ लेखों और किताबों के बाद उन्हें पढ़ना ही बन्द कर दिया। सिर्फ इतना ही नहीं, मैंने तो दर्शनशास्त्र को ही प्रणाम कर लिया था।
इसके बाद भी उनकी एक पुस्तक जिसने मुझको सबसे ज्यादा बेचैन किया था वह थी, Existentialism and Humanism (अस्तित्ववाद और मानवता)।
इसको जब 27-28 वर्ष की आयु में पढ़ा, तब उस किताब में लिखी बातें समझ में नहीं आई थी। लेकिन जो बात उस उम्र में समझ में नहीं आई वह मुझे आज प्रौढ़ अवस्था मे समझ मे आ रही है।
सार्त्र, उसमे कहते हैं –
‘जीवन में कुछ भी दुर्घटना नहीं होता है। समाज में जब कोई ऐसी घटना होती है और जिससे हम आत्मग्रहित हो जाते है, तो ऐसा किसी बाहरी प्रभाव के कारण नहीं होता बल्कि वह हमारे अंदर से आया हुआ होता है।
यदि हम युद्ध के वातावरण में भागी हो रहे हैं तो यह युद्ध, हमारा युद्ध है। यह हमारी ही प्रतिकृति है और हम ही उसके पात्र हैं। इस युद्ध से, जो आगे प्रभाव पड़ेंगे उसके उत्तरदायी भी हम ही हैं क्योंकि इस युद्ध से, स्वयं को अलग रखने का निर्णय, विगत में हमारे ही हाथ में था। यदि हम युद्ध से अपने आप को अलग नहीं कर पाते हैं तो इस युद्ध का चुनाव भी हमारा ही किया हुआ माना जायेगा।
यह हो सकता है कि हम युद्ध में इस डर से शामिल हुए हैं क्योंकि लोगों का दबाव था या फिर हमें इस बात को लेकर चिंता थी कि लोग क्या कहेंगे?
यह भी हो सकता है कि हम इस युद्ध के कारणों में विश्वास रखते हों और उसको संरक्षित रखने में गर्व महसूस करते हों। यह भी सम्भव है कि हमें लगता हो कि हमने तो स्वयं युद्ध में भाग लिया ही नहीं है, उसमें सिर्फ निमित्तमात्र के सहयोगी हैं, इस लिए हम क्षम्य हैं।
लेकिन, क्योंकि हम इस युद्ध के होने के कारकों में से एक हैं, इसलिए हम इस युद्ध से होने वाली प्रतिक्रिया से, अपने आप को अलग नहीं कर सकते हैं। यहां, जूल्स रोमैन्स की इस बात पर पूरी तरह सहमत हूँ कि “In war there are no innocent victims”, युद्ध में कोई भी अबोध नहीं होता है।‘
इतनी भारी भरकम बात मैंने इस लिए लिखी है, क्योंकि भारत, स्वतंत्रता की अपनी 15 अगस्त 1947 की तिथि से ही युद्ध में है। कश्मीर में 1947 से ही युद्ध हो रहा है और कांग्रेस की सरकारों की यह उपलब्धि रही है कि उसने यह युद्ध, भारत के विभिन्न अंचलों में फैलाया है।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस युद्ध का कारण 1947 का बंटवारा है या 1948 के बाद से ही पाकिस्तान द्वारा आक्रमण और कश्मीर में आतंकवाद और अलगावाद बढ़ावा देना है।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि भारत की कांग्रेसी सरकारों ने ही वामपंथियों को भारत की संस्कृति और इतिहास तोड़ने की खुली छूट दी थी।
इससे भी नहीं अब फर्क पड़ता है कि नेहरू, इंदिरा, राजीव, शेख अब्दुल्ला, मुफ़्ती या हुर्रियत ने क्या सही किया या गलत किया है।
और सबसे बड़ी बात… इससे भी फर्क नहीं पड़ता है कि धर्मनिर्पेक्षता की परिभाषा में हिंदुत्व का दानवीकरण करना, हिन्दुओं का धर्मांतरण करना या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भारत के टुकड़े करने की मनोकामना करना, पाकिस्तान के प्रेम में भावविह्वल हो भारत को ही लज्जित करना, भारत के प्रगतिवादी व भौतिकवादी समाज के लिए स्वीकार्य है।
यह सब भारत के ही युद्ध हैं और भारत के हर धर्म व जाति का व्यक्ति इस युद्ध का भागी है।
अंतिम सत्य यही है कि भारत युद्ध में है।
इस युद्ध में हर वह व्यक्ति जो भारत की अस्मिता, संप्रभुता और अखंडता को हाथों में पोस्टर, बंदूक या पत्थर उठा कर या फिर बुद्धिजीविता व वैश्विक मानवतावाद के मद में चूर, इन नारों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर, बौद्धिक और वैचारिक समर्थन दे रहा है, वह इस युद्ध का भागी बना, भारत के ही विरुद्ध है।
वे भारत को युद्ध में जलाने के अक्षम्य अपराध से अपने को मुक्त नहीं कर सकते हैं। ये लोग कोई भी हों, वे चाहे अलगावादी, आतंकवादी, अर्बन नक्सलवादी, बुद्धिजीवी या फिर मुख्य धारा के राजनीतिज्ञ ही क्यों न हो, वे सिर्फ और सिर्फ भारत के शत्रु है।
इन जैसे भारतीयों को उसी परिणाम की अपेक्षा रखनी चाहिए जो सड़क पर चिथड़े पड़ी लाश में परिलक्षित होती है।
कोई भी संवैधानिक व्यवस्था, कोई भी लोकतंत्र का स्तंभ, कोई भी बौद्धिकता और कोई भी शख्स, वह चाहे बूढ़ा हो, जवान या बच्चा हो, महिला हो, हिन्दू हो, सिख हो, ईसाई हो या मुसलमान हो, वह भारत की अस्मिता और अखंडता से ऊपर नहीं हो सकता है।
गोली मारनी है तो मार देना चाहिए, लाशें बिछती हैं तो बिछा देना चाहिए क्योंकि कश्मीर की घाटी इस सबकी जननी है। वहां से शुरू किये गए प्रतिघात का अंत, कांग्रेस-वामी गिरोह के पाकिस्तानी प्रेम और कश्मीरियत के साथ बहती गंगा जमुनी तहज़ीब में छिपी कट्टरता के निर्मूलीकरण पर होगा।
यहां सब इस युद्ध के भागी हैं।
यहां कोई तटस्थ नहीं है।
यहां न कोई मित्र है, न रिश्तेदार और न ही आदरणीय है।
यहां कोई भी अबोध नहीं है।
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