फ़िल्म के कथानक के मूल में भारत की दो सनातन रक्षा पंक्तियों का द्वंद्व और उसमें इस्लाम का हस्तक्षेप चित्रित किया गया है।
भारत की सीमाएं गांधार से भी आगे थी।
कठोर जीवन के अभ्यस्त प्रतिष्ठान यानि पठान, भारत की प्रथम रक्षा पंक्ति थी। सिक्ख राजपूत इसकी द्वितीय पंक्ति थी।
इस्लाम के प्रभाव से प्रथम पंक्ति, 1000 वर्ष पहले ही अफगान ध्वस्त हुए और दूसरी पंक्ति तोड़ने के प्रयत्न अब भी जारी है।
अंग्रेजों ने तो इस रहस्य को पहचान कर, केवल इस्तेमाल किया।
सारागढ़ी किले को 21 सिख फौजी, पठानों के इस्लामिक आक्रमण से बचाते हैं।
पठानों का इस्तेमाल जिहाद के लिए होता है और सिक्खों का गोरी सत्ता की रक्षा के लिए।
इसमें हिंदुस्तान गायब है।
केसरी फ़िल्म उस मार्ग की ओर ध्यान खींचती है जिसे सदियों तक आक्रांता, अपने अशुद्ध इरादों से पदाक्रांत करते रहे।
वे भव्य घाटियां, पारदर्शक तन्वी धाराएं और सीना तानकर खड़े गिरिदुर्ग, कभी हमारे हिस्से थे।
उनकी निगरानी चौकीदार भाव से की जाती थी। उसमें विवशता, धन लाभ अथवा गुलामी का लवलेश भी नहीं था।
इस्लाम के प्रसार के पीछे “ढेर सारी खूबसूरत महिलाओं” का प्रलोभन था। यूरोपीय जातियाँ अपने लिए वैश्विक सम्पत्ति के संग्रह के लोभ से भागती हुई आई।
हिंदुस्तान की प्रेरणा क्या थी?
वह कौनसा तत्व है जो हमे सर्वस्व समर्पण कर तेरी मिट्टी में मिल जावां के लिए सिद्ध करता है?
वह हमारी संस्कृति का बीज है, जिसे हम भगवत, भगवा, अरुण या केसरी कहते हैं।
वही चिरन्तन शास्वत तत्व हमारी धमनियों में रक्त बनकर बहता है, ललनाओं को अग्निस्नान तक के लिए तैयार करता है, किसी बसाए हुए घर को त्याग, तिल तिल कर, एकाकी जलने के लिए गतिशील करता है। शत्रु को पानी पिलाता है, सामने आए नाबालिग को प्राणदान करता है।
खाकी वर्दी, धूल धूसरित, अल्प साधनों वाले, अपने परिवार, बच्चों और प्रेयसी की याद में वीरान चट्टानों में बर्फीली अन उपजाऊ चोटियों के बीच निःसंग भाव से जमे रहते हैं।
हनुमानजी राम काज करते रहते हैं, वहाँ कोई सेवकधर्म की बात नहीं है, वे केसरीनंदन जो हैं।
घात, प्रतिघात और मज़हब के नशे में किस प्रकार निर्दोषों को बर्बर पशु बनाया गया, स्त्रियों को मारने में अल्लाह की खुशी मनाई गई और अपनों को ही जल पिलाते अपने ही मजहब वाले का शीश काट दिया…. आखिर क्यों?
क्यों पगड़ी के मान सम्मान का प्रश्न उपस्थित होते ही मृतप्राय भी जीवित हो, आपकी मृत्यु बन सकता है, अथवा कैसे बालक की जान बक्श देने पर भी यदि उसमें “सॉफ्टवेयर” पराया इंस्टॉल है तो वह बालक, बालक नहीं रहता।
केसरी देखिए, ज़रूर देखिए, वह हमारा छिपाया गया वो यथार्थ है जिसे वामपंथी, पाठ्यक्रम से इसलिए छिपाते रहे क्योंकि उनकी सारी थियोरी का अस्तित्व ही विलुप्त होने लगता है।
वर्षों बाद बॉलीवुड ने अंगड़ाई ली है।
मिट्टी की सुगंध में से बलिदानी रक्त को खोज कर आपको दिखाया जा रहा है।
जो निर्मम है वह निर्मम है साहब।
कब तक शायरियों के महीन रुमाल से कटे मस्तक ढंकते रहोगे।
मैंने सिनेमाहॉल की कुर्सियों पर अंत तक जमे उन दर्शकों को देखा, जो उठना ही नहीं चाहते। आंसू पी रहे थे अंदर ही अंदर। आज भीड़ का मस्तीभाव गायब था। महिलाओं ने सुबकना और बच्चों ने दुबकना बन्द कर दिया था, भले ही फ़िल्म का हीरो मर चुका था।
यह नये भारत के दर्शक हैं। जिज्ञासा से भरे हुए, और सबको लगता है अभी भी कुछ जानना शेष है….
वही “शेष” केसरी है!!!!
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