इस्लाम से हारा युद्ध लड़ रहा है श्वेत ईसाई समाज, क्या हिंदुओं की भी यही परिणति होगी!

क्राइस्टचर्च (न्यू ज़ीलैंड) की दो मस्जिदों में 49 मुसलमानों की एक श्वेत ईसाई द्वारा की गई हत्याएं और फिर उसके बाद न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री व उनकी सरकार की प्रतिक्रिया से विश्व में इस्लाम को लेकर एक बहस शुरू हो गयी है।

मुझे, न्यू ज़ीलैंड में जो प्रतिक्रिया दिखी वह मेरे लिए अचंभित करने वाली ज़रूर थी लेकिन उसके साथ, वहां के समाज की भीरुता व हीनता के बोध ने यह जरूर बता दिया है कि भविष्य में पूर्ण होने वाली संभावना क्या है।

विश्व की मीडिया व पश्चिम के राजनैतिक व सामाजिक क्षेत्रों से जो प्रतिक्रियाएं मिली हैं, वे पूर्णतः असत्य के पराधीन दृष्टिगत होती हैं।

ऐसा क्यों हुआ कि न्यू ज़ीलैंड में 49 मुसलमानों की हत्या पर इतना हल्ला हो गया जब कि उसके दो दिन पूर्व इथोपिया में मुसलमानों ने 100 ईसाइयों को मारा व माली में 100 मुसलमानों ने मुसलमानों को मारा, लेकिन विश्व उसका संज्ञान लेना भूल गया?

इस दोमुंही प्रतिक्रिया ने मेरे इस विचार को और सुदृढ़ किया है कि श्वेत जगत के ईसाई, अपने ही कर्मो के कारण, जो उपनिवेशवाद और 19वीं शताब्दी के निरंकुश औद्योगीकरण से उपजे हैं, अब विलासिता से संक्रमणित, नपुंसकता के प्रभाव में अपने पराभव की तरफ बढ़ रहे हैं।

पाश्चात्य जगत में उनका पोप व चर्च, अपने ढकोसले के बोझ में दबते हुये, इस्लाम से लड़ने के काबिल ही नहीं रह गया है। जो लड़ाई उन्होंने शताब्दियों पूर्व क्रूसेड के नाम पर, स्पेन से अरबों को भगाने व योरप से तुर्कियों के ओटोमन एम्पायर को तोड़ने के लिए लड़ी थी, अब 21वीं शताब्दी में, जीत के लिए लड़ने लायक नहीं रह गए हैं।

21वीं शताब्दी में जिस तरह जेहाद के नाम पर इस्लामिक आतंकवाद को इस्लामिक समाज ने नैतिक समर्थन दिया है और जिस तरह पाश्चात्य श्वेत ईसाई समाज ने प्रगतिवाद, एकल विश्व व मानवतावाद के नाम पर मध्यपूर्व एशिया के शरणार्थियों को अपने अपने राष्ट्रों में घुसने दिया है, उससे यही लगता है कि अब जो होने वाला है उसकी गति और तेज़ी से बढ़ती जाएगी।

मैं समझता हूँ कि आज के हालात को देखते हुये इस्लाम के जेहाद की ऊष्मा, अगले 20 वर्षो में वेटिकन के ही दरवाजे पहुंच जाएगी।

यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है क्योंकि इंग्लैंड, योरप का पहला छद्म इस्लामी योरोपियन राष्ट्र अभी से ही बन चुका है और स्वीडन, फ्रांस व बेल्जियम उसी रास्ते पर जाते हुए दिख रहे है।

नैतिकता व बौद्धिकता के मकड़जाल में फंसा वहां का भौतिकतावादी समाज, 1500 वर्ष पूर्व के समयचक्र में फंसे इस्लाम को टक्कर नहीं दे सकता है।

ऐसा नहीं है कि पूरा योरप ही समर्पण कर देगा। इस्लाम को वहां टक्कर पूर्वी योरप के उन राष्ट्रों से मिलेगी, जिनका समाज 19वीं शताब्दी तक 300 वर्षो तक तुर्की के ओटोमन साम्राज्य के अधीन रहा या संघर्षरत रहा था।

इसके अलावा, इस्लाम से संघर्ष करने की क्षमता सिर्फ जर्मन नस्ल को है लेकिन वह अभी होलोकास्ट की हीनता के बोझ से उबर नहीं पाया है।

जिस तेजी से योरप के साथ अमेरिकी महाद्वीप में इस्लाम की उग्रता के आगे उनका समाज लड़खड़ा रहा है, उससे वहां इस्लाम के लिए शुभ ही समाचार आने है। यह कनाडा को देख कर अच्छी तरह समझा जा सकता है।

80 लाख की जनसंख्या के न्यू ज़ीलैंड का हाल हम देख ही चुके है और ऑस्ट्रेलिया भी उसी रास्ते पर है, यह वहां के सेनेटर फ़रसेर अंनिंग द्वारा कटु सत्य बोलने पर उनके विरुद्ध एन्टी मुस्लिम मुहिम चलाये जाने से समझा जा सकता है।

मेरा आंकलन है कि विश्व के पास, विशेषतः श्वेत ईसाई समाज के पास सिर्फ अगले दो दशक है, जिसमें वे इस्लाम से लड़ने के लिए तैयारी कर सकेंगे। एक बिंदु पर आकर जब यह टकराव होगा तो उसको हमारी आने वाली पीढ़ी, 21वीं शताब्दी के अंत में तृतीय विश्वयुद्ध के नाम से जानेंगे।

यह प्रथम व द्वितीय विश्वयुद्ध से लंबा व विभिन्न भौगोलिक स्थानों पर लड़ा जाने वाला युद्ध होगा जो करीब 2-3 दशक चलने वाला युद्ध होगा। मेरा यह पूर्ण विश्वास है कि इसमें न्यूक्लियर युद्ध, अंतिम चरण से पहले नहीं होने वाला है।

अब सवाल पैदा होता है कि इस्लाम के नाम पर, मुस्लिम समाज द्वारा समर्थित इस जेहाद के मानसिक उन्माद से लड़ेगा कौन? योरप से लेकर अमेरिकी महाद्वीप, ऑस्ट्रेलिया, न्यू ज़ीलैंड, अफ्रीका तो भुनगे हैं। भौतिक समृद्धि से अर्जित सैन्य तकनीकी उनको ऊपर से ज़रूर सुदृढ रखे है लेकिन उनका समाज आत्मबल विहीन हो खोखला भी है। वे नहीं लड़ सकते क्योंकि उनकी लड़ने वाली जनसंख्या या तो इस्लाम के साथ है या फिर लेफ्ट लिबरल की विलासिता में दिग्भ्रमित हो चुकी है।

इस सब निराशाओं के बाद अंत में एशिया ही बचता है, जिसमें इस्लाम से चीनी, बौद्ध और हिन्दू अंतिम युद्ध लड़ सकते हैं। यह तीन नस्लें ऐसी हैं जिनकी जनसंख्या विश्व में सबसे ज्यादा है। वे युद्ध में ज्यादा मर कर भी आगे की पीढ़ी को सुरक्षित रख सकते हैं।

इन तीनों नस्लों में, चीन हमारा पिछले 70 वर्षों से शत्रु है लेकिन उसके बाद भी हमें यह स्वीकारना होगा कि वे हमसे ज्यादा दूरगामी सोच रखते हुए, इस्लाम से अनिवार्य रूप से होने वाले संघर्ष की तैयारी शुरू कर चुके हैं। बौद्धों ने भी पिछले कुछ वर्षों में अपनी आर्थिक विषमताओं के आगे जाकर, इस पर सोचना शुरू कर दिया है लेकिन हिन्दू ही सबसे दुर्भाग्यपूर्ण व नपुंसक नस्ल है जो अभी भी नहीं चेती है।

उसका कारण शायद यही है कि एक तो, हम में अपनी दुर्बलता को बौद्धिक अहंकार के आवरण में छिपा लेना सीख लिया है और दूसरा, हिंदुओं को पाश्चात्य द्वारा परिभाषित प्रगतिवाद, मानवतावाद व धर्मनिर्पेक्षता ने इतना नपुंसक बना दिया है कि हिंदुत्व के वटवृक्ष को छोड़ कर, वह अपनी व अगली पीढ़ी के अस्तित्व को अपने सामर्थ्य से ज्यादा, अपने शासक वर्ग पर छोड़ चुका है।

वैसे भी हमारा इतिहास यही रहा है कि जब शासक धर्म बदलता था तब उसके चरणों के पूजक वाली प्रजा भी धर्म बदल लेती थी। वर्तमान में यह परिणाम हम कांग्रेस के नेतृत्व को समर्थन देने वालों से समझ सकते हैं।

जब तक सोनिया, राजीव गांधी राजनीति के पटल पर नहीं थे तब तक ईसाई वर्ग, पारसियों के बाद भारत का सबसे संतुष्ट व आत्मसात किया हुआ अल्पसंख्यक वर्ग था, लेकिन 80 के दशक में जब प्रभावी हुआ तो लोगो को पता ही नहीं चला। अब हालत यह है कि सोनिया राहुल गांधी के समर्थित कांग्रेसी नेता, हिन्दू हैं या ईसाई, यही भारत की जनता को नहीं मालूम है।

इससे पहले नेहरू-इंदिरा, मुस्लिमों को विशेष स्थान दे चुके थे लेकिन मूर्ख, स्वार्थी व बौद्धिक अहंकार से ग्रसित लोग 70 के दशक में हुये इस बदलाव को समझ ही नहीं पाये थे।

अब आज अंत में जो बात कह रहा हूँ वह ज़रूर दूर की कौड़ी लगेगी लेकिन इस विश्व को चीनी, हिन्दू और बौद्ध नस्लों का गठबंधन ही, इस्लाम से बचा पायेगा। जब तक इन नस्लों का, स्वेच्छा से युद्ध में रक्त नहीं बहेगा, तब तक विश्व पर इस्लाम के आधिपत्य को कोई रोक नहीं पायेगा।

चीन और भारत को एक जगह आना ही होगा, आज नहीं तो अगले दशक में यह करना ही होगा और मैं समझता हूँ कि नरेंद्र मोदी इस बात को भारत तो क्या, विश्व के श्रेष्ठ विचारकों से ज्यादा बेहतर समझते हैं।

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