यहां पता लगता है कि आपने कितने हृदय जीते, कितने दिलों पर राज किया

आदरणीय मनोहर पर्रिकर के साथ आज चीनी और विश्व इतिहास के एक महान व्यक्तित्व ज़ो एन लाई (Zhou Enlai / Chou Enlai) को भी याद करना चाहूँगा।

चीन पर और दुनिया पर प्रीमियर ज़ो के विराट व्यक्तित्व की अमिट छाप है। ज़ो एक ऐसे व्यक्तित्व के स्वामी थे कि कम्युनिस्ट होने के बावजूद उनके सामने सर श्रद्धा से झुक जाता है।

वे चीनी राजनीति के सुपरस्टार थे। चीनी गृहयुद्ध हो या जापानियों के विरुद्ध संघर्ष… हर क्रिटिकल मोड़ पर जो एन लाई का योगदान एक टर्निंग पॉइंट रहा।

PRC, पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना (1949) से लेकर 1976 के वर्ष तक, जिस वर्ष प्रीमियर ज़ो और चेयरमैन माओ की मृत्यु हुई, वे चीनी इतिहास की स्थिर धुरी बने रहे।

इस दौरान उन्होंने माओ के ग्रेट लीप फॉरवर्ड और फिर कल्चरल रेवोल्यूशन के पागलपन को भी झेला, पर इस पूरे काल में वे चीनी जनता का रक्षा कवच बने रहे।

वही एकमात्र राजनेता रहे जो माओ के पागलपन से लगभग बचे रहे, क्योंकि चेयरमैन माओ को भी पता था कि इस पूरे तूफान में भी चीन की नाव को डूबने से बचा कर रखने की क्षमता थी तो सिर्फ ज़ो में।

फिर भी वे इससे पूरी तरह से नही बच पाए और उन्होंने व उनके परिवार ने माओ और उनके पागल गैंग ऑफ फोर के हाथों बहुत प्रताड़ना झेली। हालाँकि वे माओ को उसके पागलपन से तो नहीं रोक सके, फिर भी किसी तरह वे देश की प्रशासनिक बागडोर सम्हाले रहे और देश को पूरी तरह विनाश के रास्ते जाने से रोके रखा।

अपने जीवनकाल में ज़ो एन लाई ने एक अतिमानवीय समर्पण और कार्यकुशलता से काम किया। इतने बड़े देश की सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और विदेश नीति की ज़िम्मेदारियाँ तो उनके कंधे पर थी हीं, साथ ही फिसलन भरी चीनी राजनीति की राह थी जहाँ आज आप एक दिन देश के राष्ट्रपति या रक्षा मंत्री होते थे, और अगले दिन मैडम माओ के कोपभाजन बनते थे तो आपका पूरा परिवार जेल के अंदर या जमीन के नीचे होता था।

उसके बीच में सिर्फ जीवित रहना भी एक चुनौती थी। हालाँकि प्रीमियर ज़ो 26 वर्ष प्रधानमंत्री रहे पर वे सत्ता के केंद्र कभी नहीं रहे। पर चीन को गृहयुद्ध और जापानी आक्रमण की विभीषिका और फिर माओ के वीभत्स साम्यवादी प्रयोगों से निकाल कर एक महाशक्ति बनाने और विश्वपटल पर स्थापित करने में ज़ो का अमूल्य योगदान रहा।

1972 की फरवरी में प्रेसिडेंट निक्सन ने चीन की अप्रत्याशित यात्रा की और इसके साथ ही चीन को विश्व समुदाय में बहुप्रतीक्षित प्रवेश और सम्मान मिला। यह प्रीमियर ज़ो की एक व्यक्तिगत डिप्लोमेटिक उपलब्धि थी। पर इसके साथ ही उनका वैश्विक कद इतना ऊँचा हो गया कि यह खुद चेयरमैन माओ की आँखों में खटकने लगा।

माओ का स्वास्थ्य लंबे समय से खराब चल रहा था और शारीरिक रूप से वह बहुत सक्रिय नहीं रह गया था। इस बीच उसकी मूल चिंता यह थी कि उसे उसके जाने के बाद इतिहास किस तरह याद करेगा।

उसी समय, 1972 में प्रीमियर ज़ो को ब्लैडर का कैंसर डायग्नोज़ हुआ। कैंसर अभी अपने शुरुआती दौर में था। पर माओ की ज़िद थी कि किसी भी हालत में ज़ो एन लाई उसके उत्तराधिकारी नहीं बनने चाहिए।

माओ की अवस्था खुद खराब थी और उसका अपना निवास एक हस्पताल के केबिन जैसा था। पर माओ की एक सनक थी कि उसे ज़ो के मरने तक जीवित रहना है जिससे कि माओ की राजनीतिक विरासत पर निर्णय करने की स्थिति में ज़ो एन लाई नहीं हों। तो माओ ने प्रीमियर ज़ो के किसी भी तरह की जाँच और इलाज की अनुमति नहीं दी।

पर ज़ो अपनी असाधारण 18 घंटे प्रतिदिन की दिनचर्या के साथ काम पर जुटे रहे। उनकी कार्यकुशलता इतनी असाधारण थी कि उनका टॉयलेट तक एक दफ्तर था और वे टॉयलेट में भी बैठते थे तो वहाँ भी फाइलें देखते थे।

1974 आते आते उनकी अवस्था बिगड़ने लगी पर वे भीषण पीड़ा में भी अपना काम करते रहे। डॉक्टर उन्हें माओ से छुपा कर दर्द की दवाईयां देते थे। जब कैंसर बहुत फैल गया और स्थिति बहुत बिगड़ने लगी तो माओ ने सीमित इलाज की अनुमति दी। इस बीच चेयरमैन और मैडम माओ उन्हें प्रताड़ित करने और कष्ट देने के लिए तरह तरह की हरकतें करते और अपमानित करते रहते थे।

जीवन के आखिरी साल में ज़ो के 6 मेजर आपरेशन हुए, उन्हें 100 यूनिट से अधिक ब्लड ट्रांसफ्यूज़न दिया गया। हस्पताल ही उनका घर था, उनका दफ्तर भी था। अपने आखिरी दिनों तक, जब तक वे आँख खोलने की स्थिति में थे, अपना काम करते रहे।

अक्सर वे दर्द की दवा लेने से इनकार कर देते थे जिससे कि वे जगे रह सकें और काम कर सकें। उनका वज़न घट कर 30 किलो रह गया था, वे मरणांतक पीड़ा में थे… पर एक दिन क्या, एक क्षण के लिए उन्होंने अपना काम नहीं रोका।

हस्पताल के बिस्तर से उठकर अपनी बीमारी के आखिरी चरण में ज़ो ने 60 से अधिक विदेशी मेहमानों से मुलाकात की, 160 से अधिक मीटिंग्स की, और बीस बार महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए हस्पताल से बाहर आये।

ज़ो एन लाई का जीवन भी सादगी और ईमानदारी का जीवन रहा। उन्होंने अपने परिवार को राजनीति और सत्ता की दौड़ से दूर रखा। स्वयं अपने लिए किसी भी धूमधाम की अंतिम यात्रा, किसी स्टेट फ्यूनरल के लिए इनकार कर दिया और कोई स्मारक बनाने से सख्त मनाही कर दी। पर जिस दिन उनकी अंतिम यात्रा थी, बिना किसी सरकारी विज्ञप्ति के, बिना इंटरनेट और संचार माध्यम के, स्वतः प्रेरणा से 20 लाख लोग उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुए।

पिछले दो सप्ताह से लगातार काम कर रहा हूँ, वीकेंड को भी। पर यह कोई देश का काम नहीं है। अपनी जीविकोपार्जन का काम है। जो कर रहा हूँ, अपनी गरज से कर रहा हूँ। फिर भी सुबह उठ कर काम पर जाने की इच्छा नहीं होती।

थका हूँ, घुटने में दर्द है। खुश हूँ कि आज छुट्टी कर ली। फिर सोचता हूँ, ये लोग किस मिट्टी के बने थे। कैंसर था, अंतहीन पीड़ा रही होगी। जीवन के कुछ दिन बचे हों और उसे अपने लिए, अपने परिवार के साथ बिताने के बजाय देश के लिये देने की प्रेरणा और समर्पण कहाँ से लाते हैं ये लोग?

आदरणीय मनोहर पर्रिकर के महाप्रयाण पर पूरे देश की आँखें नम हैं। ईश्वर ने दुर्भाग्य से उन्हें दीर्घायु का वरदान नहीं दिया, पर उन्हें अमर कीर्ति के कर्मों की प्रेरणा दी। उन्होंने अपनी आखिरी साँस तक देश के लिए दे दी।

सच है… जीवन का संचित धन अपने कर्म, अपनी कीर्ति ही होती है। किसी के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि उसकी अंतिम यात्रा ही है। यही बताता है कि आप कितने बड़े सम्राट हैं, आपने कितने हृदय जीते, कितने दिलों पर राज किया।

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