न्यू ज़ीलैंड की घटना पर विधवा विलाप शुरू हो चुका है। आतंक का कोई धर्म नहीं होता! फलनवां जी का धर्म तो शांति का है! देखिए, कितने बेकसूर मारे गए!!
उधर बांग्लादेश की क्रिकेट टीम बाप-बाप कर उठी है। बचकर निकल जाने के बाद भी सोशल मीडिया पर लोगों से अपने लिए दुआ की अपील कर रही है।
यह भय, संताप, क्रोध और तिलमिलाहट पहले कभी नहीं देखी?
क्यों?
क्योंकि, तब तुम्हारे धर्म के शांतिप्रिय लोग पूरी दुनिया में घूम घूमकर दूसरे लोगों को मार रहे थे इसलिए?
दशकों से हजारों हज़ार निरीह जानों की नृशंस हत्या के बाद तुम जैसों को कभी सोशल मीडिया पर अपील करते हुए नहीं पढ़ा!
खैर तुम लोग क्या अपील और दुआ करोगे? तुम लोग तो धोनी का सिर काट कर ले जाने वाले पोस्टर चिपकाने वाले लोमड़ हो! आज खुद पर बीती तो बाप-बाप कर उठे?
मैंने अपने पत्रकारिता जीवन में कभी किसी भाईजान पत्रकार को इस्लामिक आतंकवाद की निंदा में एक शब्द बोलते नहीं देखा। ना कभी आत्मावलोकन करते पाया।
हां, जैसे ही किसी मुसलमान को आतंकी होने के आरोप में पकड़े जाने की घटना हुई, फ़ौरन षड़यंत्र का कोण खोजते हुए ज़रूर देखा और हर बार देखा।
इनकी बेईमानी और मक्कारी कल्पना से परे है। जिसे हमारे लीचड़ और बेईमान सेक्यूलर ढांप पोत कर रखने में सहयोग देते रहे हैं।
अब समय बदल रहा है। सबमें हिन्दुओं जैसी सहिष्णुता नहीं होती।
हो ही नहीं सकती।
ईसाई एक सीमा तक सहेंगे फिर वही करेंगे जो आज किया।
इस पैशाचिक विश्वास की विश्वव्यापी भर्त्सना अपरिहार्य है। मुसलमान स्वयं आगे आकर ऐसा करेंगे, वह भी सामूहिक रूप से, संभव नहीं दीखता। इक्के दुक्के विरोधियों से कुछ होता नहीं है। ऐसे में भविष्य रक्तपात से भरा दिखाई देता है। ये मानेंगे नहीं और वे सहेंगे नहीं!