एक सभ्यता का मानक यह नहीं है कि वह कितने हज़ार सालों से धरती पर है। क्योंकि हज़ारों सालों से रह कर भी एक सभ्यता एक दिन नष्ट हो जाये तो वह एक हारी हुई सभ्यता ही है। उसका मानक यह है कि वह बदलते हुए समय के साथ कैसे सामंजस्य बिठाती है।
अफ्रीका की वनवासी सभ्यताएँ अपनी पहचान लगभग नहीं ही बचा सकीं। वे या तो ईसाइयत और इस्लाम के बीच निगल ली गईं, या अगर कहीं बची हों तो गरीबी और भुखमरी में ही बची होंगी।
अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की सभ्यताएँ क्या, पूरी की पूरी जनसंख्या समाप्त कर दी गई। बचा ले देकर एशिया। यहाँ जिन्हें इस्लाम या क्रिश्चियनिटी नहीं निगल गया, वे मूलतः चार सभ्यता के केंद्र हैं. चीन, जापान, इज़राइल और भारत।
इन सभ्यताओं ने बदलते हुए विश्व से कैसे रिस्पॉन्ड किया यह देखने की बात है। इसे क्रम से देखते हैं।
जहाँ दूसरी सभ्यताओं के सामने परिवर्तन को स्वीकार करने की चुनौती होती है, इज़राइल के सामने चुनौती दूसरी थी। उन्हें परिवर्तन को स्वीकारने की समस्या नहीं थी। क्योंकि दुनिया में होने वाले अधिसंख्य परिवर्तनों के वाहक तो यहूदी स्वयं ही थे। उनकी समस्या थी उन परिवर्तनों के बीच अपनी पहचान को बचाने की। अपनी ही लगाई आग में अपना घर जलने से बचाने की।
दुनिया के लगभग सारे कम्युनिस्ट और नव-मार्क्सवादी वामपंथी नेता और विचारक यहूदी हुए। लेकिन उनका अपना यहूदी समाज सबसे ज्यादा पारंपरिक और धार्मिक बना रहा। यूरोप में हज़ारों वर्षों तक रह कर भी उनके हृदय से ना तो इज़राइल के राष्ट्र की प्रतिबद्धता धूमिल हुई, ना ही यहूदी धर्म और परंपराओं के प्रति उनका आग्रह कमज़ोर पड़ा।
इज़राइल राष्ट्र की स्थापना उनके लिए मात्र एक राजनयिक और सैन्य परीक्षा थी। उन्हें सिर्फ एक ज़मीन जीतनी थी, और उस ज़मीन पर कब्ज़ा करके उसे दुनिया के देशों से मान्यता दिलानी थी।
उनकी यह लड़ाई बहुत ही साहसिक और अतिमानवीय लगती है, पर मेरी दृष्टि में यह लड़ाई बहुत ही सीधी थी। साधन सीमित थे पर लक्ष्य स्पष्ट थे। सफलता का मूल्य पता था, और विफलता की कीमत भी मालूम थी। ऐसी लड़ाइयाँ निर्द्वंद होती हैं… आदमी आखिरी गोली, आखिरी साँस और खून की आखिरी बूँद तक लड़ता है… और ऐसी लड़ाइयाँ हारना कठिन है।
पर इज़राइल राष्ट्र की स्थापना का सांस्कृतिक लक्ष्य बहुत ही सरल था। इज़राइल अपनी स्थापना के पहले से ही एक राष्ट्र था। उसके पास एक ज़मीन का टुकड़ा भर नहीं था… बाकी सबकुछ था। ज़मीन जीती और एक राष्ट्र खड़ा हो गया…
एक राष्ट्र जिन सभ्यतागत बिन्दुओं पर परिभाषित होता है, यहूदियों के इतिहास के हज़ारों सालों के विस्थापन के बावजूद वे बिंदु अक्षुण्ण रहे। उन्होंने एक धर्म, एक राष्ट्र का मंत्र समझने में एक दिन का भी समय बर्बाद नहीं किया। यूँ तो वे दुनिया के अलग अलग कोने से आये थे, अलग अलग भाषाएँ बोलते थे… पर अपनी मृतप्राय हिब्रू भाषा को पुनर्जीवित और पुनर्स्थापित करने में उन्हें एक पीढ़ी का समय नहीं लगा।
ऐसा लगा जैसे कि इज़राइल एक राष्ट्र के रूप में एक गमले में बड़ा हुआ एक पौधा था, जिसे अपने साथ लेकर यहूदी दो हज़ार सालों से दुनिया भर में घूम रहे थे। जैसे ही उन्हें ज़मीन मिली, उसमें वह पौधा निकाल कर रोप दिया गया और वह देखते देखते एक वृक्ष बन गया।
एक राष्ट्र किन तत्वों से बना होता है, यह समझने के लिए इज़राइल एक सुंदर उदाहरण है। एक राष्ट्रीयता वह नहीं होती जो ज़मीन का एक टुकड़ा शेयर करते हैं। राष्ट्रीयता वह होती है जो लोग एक साझा इतिहास शेयर करते हैं।
भारत के संदर्भ में देखिए, जबतक लोग एक fractured इतिहास पढ़ते रहेंगे, हम एक राष्ट्र नहीं हो सकते। कोई अरब से आये हत्यारों में अपना इतिहास देखता है, कोई यूरोप से आये लुटेरों में। कोई हमें बाहर से आया और खुद को मूलनिवासी कहकर, कोई आर्य और द्रविड़ का झूठा विभेद बताकर हमें लड़ने को प्रेरित करता है।
जब तक एक साझा इतिहास की समझ विकसित नहीं होगी, हम एक राष्ट्र नहीं हैं, नहीं हो सकते। हमें सेना या सरकार एक राष्ट्र नहीं बनाती, ना ही कोर्ट या संविधान… हमें एक राष्ट्र होने के लिए इतिहास के इस बगीचे की खरपतवार हटानी होगी, विषबेलें उखाड़ फेंकनी होंगी…
क्रमशः…