दिल्ली में साहित्य अकादेमी ने साहित्योत्सव का आयोजन कराया। ये जनवरी मास के अंत से शुरू हुआ था। आज लोकसभा टीवी पर इसकी एक रिपोर्ट देखी तो मन में तीसरे लिंग को लेकर कुछ प्रश्न आये।
क्या सच में तीसरा लिंग अपने आप में ही अलग लिंग है? या उन्हें भी पुरुष अथवा महिलाओं की श्रेणी में जोड़ने का प्रयास हो रहा है?
मैं काफी समय से देख रहा हूँ कि किन्नरों के हक़ के लिए निकाले जाने वाले पदयात्राओं में ऐसे पुरुष जो स्वयं को स्त्री महसूस करते हैं व ऐसी स्त्री जो स्वयं को पुरुष महसूस करते हैं शामिल थे; मगर इनका प्रतिनिधित्व उन्होंने किया जिनकी वेशभूषा स्त्रियों की थी।
इस बात को कहने में हमें संकोच नहीं करना चाहिए, कि वेशभूषा लैंगिक होती है। साहित्योत्सव की अंतिम कड़ी में करीब 14 कवियों का कवि सम्मेलन आयोजित हुआ, 2 फरवरी 2019 को। इसमें मानवी बंदोपाध्याय के नेतृत्व में 14 किन्नर कवि, यानि अंग्रेज़ी के ट्रांसजेंडर कवि थे; मगर मुझे इनमें सभी स्त्री की वेशभूषा में नज़र आये।
कोई ऐसा पुरुष नज़र नहीं आया, जिसने पुरुषों के वस्त्र पहने हो, और भाव स्त्रियों वाले हों। या ऐसी स्त्री भी नज़र नहीं आई जो प्राकृतिक रूप से स्त्री हो मगर हाव भाव पुरुषों वाले हों।
ऐसा क्यों?
क्या किन्नरों से जुड़ा यह आंदोलन किसी लिंग विशेष तक सिमटने वाला है? क्या लिंग भेद को समाप्त करने के उद्देश्य से उठा यह आन्दोलन किसी नए लिंग भेद को जन्म दे रहा है?
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