विरोधी अक्लमंद या अक्ल मंद?

जैसे जैसे चुनाव आ रहे हैं, विपक्ष जाल में ज्यादा से ज्यादा फँसता जा रहा है। ऐसे समय जब उसे जनता के सामने अपनी बात लेकर जाना चाहिए वो सत्ताधारी की बातें पहुंचा रहा है।

दरअसल इसे राजनीति का वो धोबीपछाड़ दांव कहते हैं जिसमें विरोधी को कुछ सूझता नहीं। आज सत्ताधीश अपनी उंगली पर विपक्ष को नचा रहा है।

कहा जाता है ऐसे समय विपक्ष को स्तम्भ देने जो बुद्धिजीवी होते हैं, राजनैतिक विचारक होते हैं वो भी चारों खाने चित नज़र आते हैं। इसका सीधा अर्थ है कमजोर विपक्ष। विपक्ष के पास अपना कोई मुद्दा नहीं है। अपना कोई अस्तित्व नहीं है ऐसे समय विपक्ष की भूमिका में जो उनका साथ दे सकने वाले खम्बे होते हैं उन्हें भी टूट के गिरना ही होता है।

सारा का सारा विपक्ष विरोध को ही ये समझ रहा है मानो मुद्दा हो। जबसे सरकार बनी तबसे ही विरोध की राजनीति का ऐसा काला दांव चलाया गया, जिसने सत्ताधारी की तलवार को और धारदार बना दिया। ऐसा लगा मानी इस तलवार से खुद ही टकराकर विरोधी कटते जा रहे हैं।

ऐसे समय जब चुनाव को कुछ ही दिन शेष हैं विपक्ष और उसके समर्थक या विचारक ये भी नहीं जान पाने की स्थिति में हैं उन्हें किस बात या मुद्दे को लेकर जनता के सामने जाना है। राजनीतिक गलियारे से लेकर सोशल मीडिया तक में विपक्ष सरकार के हाथों की कठपुतली ही बना दिख रहा है।

सत्ताधारी तो यही चाहेगा। इसमें कोई बुरी बात नहीं। उसे अपना रास्ता तय करना है किंतु विपक्ष को क्या करना है वो सोच पाने जैसी स्थिति में नहीं है। सारा का सारा विपक्ष सरकार के कार्यों की आलोचना में ही लगा है। ये सही है मगर जनता को वो क्या दे रहा है? कौनसे मुद्दे की बात कर रहा है? कौनसे सपने दिखा रहा है? उसके पास क्या समाधान है ? वो देश को किस तरह का बनाना चाहता है? कुछ भी नहीं है। वो एक मंदबुद्धि व्यक्ति की तरह बस घिसट रहा है। उसके समर्थक उन बहसों में लगे हैं जिन बहसों में सत्ताधीश लगाना चाह रहे हैं। जैसे कान पकड़ कर सत्ताधीश उमेठते हैं और वो कराह कर चिल्लाता भर है।

कितना निरीह जान पड़ता है विपक्ष। कितना बेबस और लाचार है। ये इसलिए कि उसके पास कोई नेतृत्व नेता नहीं है। इसलिए कि वो एक ऐसे नेता के कंधों का सहारा लेकर चल रहा है जिसमे अपनी कोई वैचारिक शक्ति नहीं है। जिसमे अपना कोई वजूद नहीं है। जिसमे अपनी कोई ऐसी पहचान नहीं जो उसे एक परिपक्व राजनेता की छवि प्रदान करे। विपक्ष को मजबूत बने रहने और लोकतंत्र को जिंदा रखने के लिए जो बुद्धिजीवी या पत्रकारों का काम है वे सारे के सारे सिर्फ एक व्यक्ति से नफरत के कारण अपनी शालीनता, अपनी कुलीनता, अपनी शक्ति खो बैठे हैं। उनमें देश के सामने विकल्प रखने जैसी कोई बात नहीं हैं। वे भटक चुके हैं, अपनी ईमानदारी खो चुके हैं और इसका सीधा लाभ सत्ताधीश को मिल रहा है।

उनकी बुद्धि इस नफरत की अग्नि में इतनी जलकर राख हो चुकी, कुंद हो चुकी कि वे बस अब मोदी विरोध ही अपना परम कर्तव्य समझ रहे हैं। ऐसे में जनता के सम्मुख उनके मुंह कालिख लगे दीखते हैं। वे जनता के सामने सत्ता के दुश्मन की तरह देखे जाने लगे हैं और यही उनका घोर पतन है। इतना अधिक कि उन्हें अब ये भी नहीं सूझ रहा कि वो जो कर रहे हैं वो निहायत ही बेवकूफाना और मूर्खतापूर्ण कार्य है। उन्होंने ऐसी स्थिति का निर्माण कर लिया है कि उनकी बात को सीधे सीधे मोदी का विरोध माना जाने लगा है और ये सब विपक्ष के खोखलेपन के कारण है। बुद्धिजीवी, पत्रकार आदि तो ऐसे मोहरे हैं जिन्होंने खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चलाई है और अब दर्द से चीख रहे हैं।

लोकतंत्र में ये स्थिति ठीक नहीं किन्तु देश की स्थिति ही जब एक व्यक्ति के विरोध में देश विरोध, या देश के पक्ष में कहो तो उसे व्यक्ति के पक्ष में माना जाने लगा है , जैसा आलम बना दिया गया है। इसमें भी दोष सत्ताधारी को दिया जा रहा है जो मर चुकी बुद्धि को और दफ़्न करने जैसी बात है। सत्ताधारी सत्ता में फिर आने के लिए हर वो चीज करेगी जो उसे करना है और जनता को अपनी ओर रखना है, इसमें राजनैतिक स्तर पर कोई गलत बात नहीं है। विपक्ष भी यही करता है। मगर विपक्ष अब ये नहीं कर रहा वो पूरी तरह मोदीविरोध में लगा है। और यही मोदी सरकार चाहती भी है।

ऐसी बनी स्थिति सुधरेगी , नहीं लगता क्योंकि विपक्ष और विपक्षी समर्थक सबके सब एक ही व्यक्ति के पीछे पड़े हैं और ऐसे व्यक्ति के पीछे जिस पर पूरा देश फ़िदा है। बताइए..विरोधी अक्लमंद हैं या अक्ल मंद?

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