याद है वह दिन जब पुलवामा हमले जैसा ही सन्नाटा था पूरे देश में?
हम सब साँसे थामे टीवी से चिपके थे। पूरी दुनिया के हर न्यूज़ चैनल पर एक ही खबर चल रही थी।
जब होटल ताज के कई कर्मचारी अपनी जान पर खेलकर देशी-विदेशी मेहमानों को सुरक्षित कर रहे थे तब हमारी बुद्धिजीवी मीडिया ताज के उन कमरों पर लाल-नीले तीर लगा कर लाइव टेलीकास्ट कर रही थी जहाँ गेस्ट छुपे हो सकते थे।
अमेरिका और ब्रिटेन पूछ रहे थे कि ताज के छत पर कमांडो उतारने में इतना समय हिंदुस्तान को लग कैसे गया?
पूरी दुनिया ने सवाल किया कि इस देश की मीडिया कैसी है जिसने सरकार के रोकने से पहले तक आतंकवादियों को मदद करने वाली खबरें चलाई?
हमारे नेतृत्व की कमज़ोरी पर दुनिया भर में हंसा गया था।
साल था 2008।
नेतृत्व में थी कांग्रेस।
मरे थे हमारे 160 से ज़्यादा लोग।
बदले के नाम पर हमें मिली थी – कड़ी निंदा।
उस वक्त भी पूरा देश रोया था। आज एक दशक के बाद उन स्मृतियों पर धूल चढ़ चुकी है। समय ने जनमानस के क्रोध व दुःख पर मलहम लगा दिया। बची थी तो बस लाचारी। शायद आज भी रोते होंगे वे लोग, जिनके अपने उस दिन लाश बन गये। आज भी न्याय की आस में होंगे वो।
But justice delayed is justice DENIED.
आज पुलवामा के आँसू सूखे भी नहीं हैं और हमारे नेतृत्व ने दे दिया जवाब आतंकवाद को।
आज आप पुलवामा के लिये दुःखी व क्रोधित भले ही हों, पर क्या आज भी आप उतने ही लाचार महसूस कर रहे हैं जैसा मुम्बई टेरर अटैक के बाद किया था?
नहीं।
बस इसीलिये मैं इस नेतृत्व को छोड़ने के लिये तैयार नहीं हूँ। शुक्रिया आपकी बुद्धिजीवी लफ्फाज़ियों का… पर मुझे वह लाचारी वापस नहीं चाहिये।
मोदी है तो मुमकिन है।