करीब 1000 वर्ष के बाद भारत को एक पूर्ण हिन्दू शासक मिला है जो स्वयं को सेवक ही मानता है।
आज, जबकि चपरासी भी पानी की गिलास नहीं भरना चाहता, देश के सबसे शक्तिशाली पद पर बैठा व्यक्ति, व्यस्त दिनचर्या में से समय निकाल कर पंक्ति के सबसे पिछले सिरे पर खड़े व्यक्ति को ससम्मान चरण पखारकर सन्देश देता है, इस संस्कार को क्या कहेंगे?
कहाँ से जन्मते हैं ऐसे अद्भुत भाव!!
मेरे प्यारे स्वच्छाग्राहियों!!
कभी समय के बर्बर क्षणों में हाशिए पर डाला होगा तुमको।
रहे होंगे कई कारण।
संसार में जहां जहां भी मानव सभ्यता हैं, वहाँ वहाँ स्वच्छता कर्म भी है, बदले स्वरूप में उसके व्यवसाय भी है। जन्मना, कर्मणा सब है। धन दिया, सेवा ली। हिसाब हो गया।
किंतु देखिए,,,,
अब अपना समय लौट आया तो वह सब साधने की कोशिश हो रही है जो छूट गया था।
और यह, ऐसा एक हिन्दू ही कर सकता है।
हिंदुओं के सर्वोच्च पर्वस्थल पर, सार्वजनिक समारोह में, यह स्मृति एक हिन्दू ही मन में धारण कर सकता है कि बहुत कुछ जो छूट गया था, बिखर गया था, छिटक गया था, उसे समेटने की कोशिश कर रहा हूँ।
67 वर्ष की आयु में, जबकि कमर दर्द चरम पर है, घुटने मोड़कर, बारी बारी से एक एक के चरणारविन्द को पूर्ण मनोयोग से, धोकर पोंछकर, जैसे कि अपने महादेव की पूजा की जा रही है, यह एक हिन्दू जीवन दृष्टि का ही अनुष्ठान हो सकता है।
देश की बिगड़ैल अभिजात्य श्रेणी को यह न जँचता हो, हर कदम को शक और संशय की नजर से देखने वाले दलित चिंतकों ने कोई और अर्थ लगाया हो, विगत 1000 साल के कड़वे अनुभवों की गठरी को तानों में भरकर किताब लिखने वालों के लिए यह अवरोध हो, बात बात में गाली गलौज के कल्पित आख्यान सुनाकर धर्मांतरण में जुटे मिशनरियों को यह खेल लगा हो, सही एंगल और सटीक मुद्रा के प्यासे मीडिया को यह एपिक स्टोरी लगी हो, जिस धोती को सम्भालना न आए उसे भी ढो कर, चार डग भरने में वोटों की गुंजाइश के मापन में लगे हों, मगर काम तो बड़ा भारी हुआ है।
क्योंकि,
मनुष्य में अंतःकरण नामक एक सॉफ्टवेयर होता है और वह, हर घटना की व्याख्या वैसे ही करता है जैसा वह अपने मन में सोचे बैठा है।
एक क्षण, थोड़ा विपरीत मन से भी तो सोचिये कि लोग भगत बन रहे हैं तो क्यों बन रहे हैं?
यदि इवेंट ही करना होता तो, जो ऐसा मौका क्रिएट कर सकता है, वह यदि अपने पर आ ही जाए, तो क्या क्या कर सकता है?
शिव ही शिव को जान सकते हैं।