दिल्ली यात्रा में पालिका बाज़ार के पास चरखा म्यूज़ियम भी चला गया।
म्यूज़ियम देखना मेरा शौक है। वैसे इसमें कुछ था नहीं सिर्फ एक बड़ा सा चरखा था जिसके साथ लोग फोटो खिंचा रहे थे, मैंने भी एक सेल्फी ले ली।
फिर सामने खादी भण्डार था वहां चला गया। गाँधी कहा करते थे कि खादी वस्त्र नहीं विचार है।
मैं इस बात से सहमत हूँ। मिल के बने कपड़े, चाहे वो कितने ही अच्छे हों, उनकी खादी से क्या तुलना हो सकती है। खादी ये बताती है कि मशीन पर चाहे वो कोई भी हो, हमारी निर्भरता एक मिथ है, मानसिक कमज़ोरी है और सादा जीवन बेहद सुरुचिपूर्ण हो सकता है। खादी के बने वस्त्र मुझे बेहद सुन्दर और सुरुचिपूर्ण लगे।
लेकिन गाँधी से मेरी सहमति यहीं समाप्त हो जाती है। इसका कारण है खादी से बने वस्त्रों का मूल्य, जो मिल के बने कपड़ों से बहुत ज़्यादा होता है। आम आदमी अब खादी पहन ही नहीं सकता, सिर्फ अमीर व्यक्ति पहन सकता है।
मैं मज़ाक में कहता हूँ कि बापू की खादी अब हिन्दुस्तानी (यानि देसी आदमी) अफ़ोर्ड नहीं कर सकता, सिर्फ अँगरेज़ (यानि विदेशी टूरिस्ट) अफ़ोर्ड कर सकता है, और ये सच्चाई भी है।
मै नहीं समझता कि खादी का दाम कम किया जा सकता है, क्योंकि यदि खादी के माध्यम से आप लोगों को रोज़गार देंगे तो उस रोज़गार का मूल्य भी देना होगा और खादी महंगी हो जायेगी।
इसमें गांधी की गलती नहीं है। गांधी ने जब आज से 100 साल पहले खादी का कॉन्सेप्ट दिया था, तब पॉलिएस्टर इजाद नहीं हुआ था और मिल का कपड़ा काफी महँगा था। तब खादी उसका मुकाबला कर सकती थी। आज मिल का कपड़ा बेहद सस्ता हो गया है। अब खादी शायद ही उसका मुकाबला कर पाए।
इस लिए सरकार को चाहिए कि इस विषय पर गंभीरता से विचार करे। या तो खादी को सस्ता कर सके तो करे, नहीं तो ये मान ले कि अब खादी आम आदमी का वस्त्र नहीं हो सकती, सिर्फ अमीरों का वस्त्र है।
फिर इसी कारण खादी पर सरकारी पैसा नष्ट करने का कोई औचित्य नहीं है। आज सरकार खादी और खादी भण्डारों पर हर साल अरबों रूपए खर्च कर रही है, आखिर क्यों? दुनिया में कहीं भी अमीरों की चीज़ पर सब्सिडी नहीं दी जाती, तो खादी पर ही क्यों?
आज खादी परजीवी है, सरकार पर बोझ है। गाँधी, जो स्वावलंबन पर बहुत ज़ोर देते थे, खुद इस बात को पसंद नहीं करते। वक्त का तकाज़ा है कि खादी को स्वावलंबी बनाया जाय, नहीं तो इसको विदा किया जाय। सरकार के स्तर पर, विचार के स्तर पर तो खादी हमेशा रहेगी।