कटोरे में रखा गया यह दो पाव माँस पुलवामा में हत हुए जवान संजय राजपूत का है। शेष शव कहाँ है यह मुझे ज्ञात नहीं, यह माँस इधर उधर से बटोरा गया है स्यात…
क्या कहूँ? क्या कहेंगे आप?
इस आधे किलो माँस में शायद वह कलाई भी है जिस पर बहनें हर वर्ष राखी बांधती थीं, और वह बाजू भी है जिसे बहन के कंधे पर रख कर भाई हर वर्ष कहता होगा कि “निश्चिंत रहना, तुम्हारा भाई तुम्हारे जीवन में दु:ख का प्रवेश न होने देगा।”
बहन इस माँस में वह कलाई और हथेली ढूंढेगी… उसे वह हथेली भला कैसे मिलेगी, वह हथेली तो देश की अन्य बहनों को आशीर्वाद देने चली गयी न…
इस कटोरे के माँस में वह कन्धा भी होगा जिसपर चढ़ कर श्मशान जाने का स्वप्न उसके पिता ने देखा होगा। कल जब वह पिता अपने कंधे पर इस आधे किलो माँस को उठाएगा तो इसका भार हिमालय से भी अधिक होगा। तब शायद वह पिता यह सोच कर सन्तोष करेगा कि बेटे का कन्धा मातृभूमि के काम आ गया…
पर यह तय हो गया कि उस कन्धे पर चढ़ कर श्मशान जाने का सुख उस पिता को नहीं मिलेगा। एक भारतीय पिता अपने बेटे से सबसे अधिक यही चाहता है कि बेटा अपने कंधे पर ले कर श्मशान पहुंचाये। संजय राजपूत के पिता ने बेटा नहीं, अपने जीवन का सबसे बड़ा अधिकार खोया है।
इसी आधे कटोरे माँस में वह माथा भी होगा जिसे चूम कर माँ अपने जीवन की सबसे बड़ी खुशी पाती होगी। माँ को अब वह माथा कभी नहीं मिलेगा, पर क्या अंतिम बार भी चूमने के लिए इस कटोरे से वह माथा निकाल पाएगी? माँ ने क्या खोया है, कौन समझ पायेगा…
इस कटोरे में उन उँगलियों के टुकड़े भी हों शायद, जिसे पकड़ कर बच्चों ने चलना सीखा था। पिता के वे पैर जिनसे लिपट कर बच्चों को लगता है कि वे अब दुनिया के सबसे सुरक्षित स्थान पर आ गए हैं और अब उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, वे पैर भी शायद इसी आधे किलो माँस में हैं। बच्चों को समझने में समय लगेगा कि उनका सबसे बड़ा सम्बल किसने छीन लिया, पर जब वे समझेंगे तो समझ जायेंगे कि उनके पिता के पैरों से लिपट कर ही यह देश खड़ा है। बाप ने बेटों का सम्बल देश को दान कर दिया है।
इस कटोरे में वह छाती भी होगी शायद, जिससे लिपट कर पत्नी ने सैकड़ों स्वप्न देखे होंगे। वह उँगली भी होगी जिससे दो ग्राम सिंदूर लगा कर पति ने उसके साथ सात जन्म का नेह जोड़ा था। क्या ढूंढेगी वह एक दिन पूर्व तक सुहागन रही स्त्री इस कटोरे में? क्या देखेगी वह इस कटोरे में…
इस कटोरे में वह छाती होगी जिसे छह सेंटीमीटर तक फुला लेता होगा वह पट्ठा, जिसे देख कर दोस्त कहते होंगे “यह तो एक्के बार में चुन लिया जाएगा”।
इस कटोरे में होगा चौदह फीट लाँघने का साहस, इसी कटोरे में होगी छह मिनट में डेढ़ किलोमीटर दौड़ने की शक्ति, इसी कटोरे में होगी तीन वर्ष की कड़ी मेहनत वाली तैयारी, इसी कटोरे में होगी दुनिया की सबसे कठिन ट्रेनिंग, इस कटोरे में होगा…
कटोरे के इस आधे किलो माँस में एक जवान का सबकुछ है। इस आधे किलो माँस में हिंदुस्तान का समूचा गर्व है, वैभव है… बस नहीं है तो अब संजय राजपूत नहीं है।
सोचता हूँ, क्या यह देश कभी इस आधे किलो माँस का मूल्य चुका पायेगा? क्या इस देश की समूची शक्ति इस माँस का भार उठा पाएगी? कभी नहीं…
तो सवा छह फीट के बलिष्ठ शरीर से आधे किलो माँस में सिमट कर लौटे पूज्य संजय राजपूत! इस देश की आत्मा सदैव आपके चरणों में गिरती रहेगी… कुछ गद्दारों को छोड़ कर समूचा देश आपके आगे नतमस्तक है देवता…