सन 2009 में ‘द मैसेंजर’ नाम की एक अंग्रेजी फिल्म आई थी। ये ईराक युद्ध से लौटे एक सैनिक की कहानी है, जिसे फौज़ से रिटायर होने से पहले संभवतः समाज में वापस घुलने-मिलने का मौका देने के लिए एक काम दिया जाता है।
ये काम था मृत सिपाहियों के घर उनकी मौत की खबर पहुंचाने का काम। उसका साथ देने और सिखाने के लिए एक अधिकारी को भी नियुक्त किया जाता है।
उच्च अधिकारी बताते हैं कि इस काम में कई लोग नाकाम हो चुके हैं। उसे ऐसे सन्देश देने के लिए कुछ नियम भी बताये जाते हैं।
पहले ही घर में जब वो ऐसी खबर देने जाते हैं तो अपने बेटे की मौत से दुखी स्त्री उन्हें थप्पड़ जड़ देती है, लेकिन काम रुकने की कोई संभावना नहीं थी। वो अगले घर में जाते हैं तो एक आदमी को समझ में ही नहीं आ रहा होता है कि उसका बेटा आखिर क्यों मर गया।
एक घर ऐसा था जहाँ वो जिस लड़की को उसके पति की मौत की खबर देने जाते हैं, उसने अपने पिता को बताया ही नहीं था कि उसने चुपके से किसी फौजी से शादी कर ली है। कहीं उन्हें दुभाषिये की मदद लेनी पड़ती है।
एक घर जहाँ वो पहुँचते हैं, वहां अपने पति की मौत से स्त्री दु:खी नहीं दिखती तो नायक मन ही मन, मान लेता है कि जरूर पति की गैरमौजूदगी में इसका कहीं और चक्कर चल रहा होगा।
फिल्म की कहानी जैसे जैसे आगे बढ़ती है वैसे वैसे समझ में आता है कि सैनिक को सिर्फ एक बार गोलियों का सामना करने के लिए हिम्मत नहीं दिखानी पड़ती। अभी भारत में वीरगति को प्राप्त जिन हुतात्माओं के शव लौट रहे होंगे, वो लेकर जा रहे सिपाही क्या सोचते होंगे? जो सेना एक इंच हाइट कम होने पर भर्ती नहीं लेती, उसके सैनिक कई इंच कम के शव लिए किस मुंह से घर जाते होंगे? यहाँ तो लौटने के लिए भी हिम्मत चाहिए।
जब दो दिन से देश शोक नहीं शॉक की सी स्थिति में रहा, समझ ही नहीं आ रहा था कि कहा क्या जाए तो जेहादियों के कुछ साले-सालियों ने मौके पर खूब ठुमके लगाए हैं। ओसामा नाम का एक कुत्ता कल गिरफ्तार कर लिया गया था। उम्मीद है रात भर में उसका जिहाद उसके अंग विशेष में ठूंस दिया गया होगा।
दूसरी कोई निधि नाम की एनडीटीवी की कर्मचारी थी। ‘रैबीज़’ को बिठाकर नैतिकता और संयम की बड़ी बड़ी बातें करने के बदले इस टीवी चैनल को उसे नौकरी से निकाल कर देश के साथ खड़ा दिखना चाहिए।
एक मामला सिद्धू का भी है जो आतंक का मज़हब नहीं होता से आगे बढ़कर आतंक का देश नहीं होता के स्तर का ज्ञान पा चुके हैं। मुझे लगता है पंजाब को और नशामुक्ति की जरूरत है, एक भगवंत मान काम नहीं बना!
कल तक जो पूछ रहे थे कि छप्पन इंच कहाँ है, वो आज कहेंगे कि हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं। ध्यान रहे कि हिटलर को हिंसा से रोका गया था। पोल-पॉट, गद्दाफी, ओसामा बिन लादेन जैसों को हिंसा से रोका गया था। बिहार में 1942 के तथाकथित गांधीवादी ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन पूरी तरह हिंसक था और इसमें हरेक थाने पर हमला हुआ था।
बाकी आत्मरक्षा के लिए हिंसा हर भारतीय नागरिक का कानूनी अधिकार भी है। आत्मरक्षा में पहले अन्दर के सिद्धू जैसे कांग्रेसी गद्दारों को ही निपटाया जाना चाहिए।