सुप्रीम कोर्ट और गांधी की समानता आपको चौंका सकती है पर अगर गौर फ़रमायें तो काफी समानता से हमारा सामना हो सकता है।
एक फ़िल्म जॉली एल एल बी में जज कहता है कि इतने मुकदमे लंबित पड़े हैं और जज इतने कम कि लगभग 10 लाख आबादी पर 19 जज नियुक्त हैं। इनमें शायद पारिवारिक न्यायालय के जज गिने जा रहे हैं कि नहीं, यह गूगल करना बाकी है।
खैर आँकड़े 10-20 लाख इधर या उधर हो जाये पर इतना मानने में सुधी पाठकों को कोई गिला या शिकवा नहीं होगा कि केस दाखिल करने और उसका फ़ैसला सुन पाने के बीच बस गीता के कृष्ण हीं आपके सहायक होंगे जो कहते हैं कि –
कर्मण्येवाधिकारस्ते
मा फलेषु कदाचन॥
जिस का सामान्य अर्थ तो यही दिखता है कि केस पे केस किये जा बगैर फ़ैसले की उम्मीद के, मतलब कि पूरा निष्काम कर्म योग।
लेखक ने भी उपभोक्ता न्यायालय का आसरा लिया था पर लगभग 12 से 15 तारीखें पाकर और इसकी औपचारिकताओं में उलझ कर ये ज्ञान प्राप्त हुआ कि केस जल्दी हार जाना भी सेहत के लिये लाभदायक होता है, वरना आज की अदालतें फ़ैसले के बदले अगली तारीख ही देती रही हैं। पर ये बात अर्ध सत्य है।
मन्दिरों में रजस्वला नारी को प्रवेशाधिकार हो,
कश्मीरी पत्थरबाज़ों पर पैलेट गन के इस्तेमाल रोकने का मसला हो,
किसी घोटाले में नामी नेता के फँसने पर अंतरिम बेल का मामला हो,
कसाब और अफ़ज़ल जैसे आतंकवादी को न्याय दिलवाना हो,
देश के टुकड़े करने के नारे लगाने वाले को बेल देना हो,
किसी हिरण प्रेमी स्टार हस्ती को घंटे-दो घंटे में जमानत लेनी हो,
किसी राज्य में रोहिंग्याओं के प्रवेश पर लगी रोक हटवानी हो या उस राज्य पर लगे राष्ट्रपति शासन को निरस्त करवाना हो,
पोर्न साइट देखने के ‘प्राकृतिक’ अधिकार का हनन हो या
समलैंगिकों की सामाजिक स्वीकार्यता का मुद्दा हो, तो कोर्ट को ज्यादा तकलीफ़ नहीं होती है फ़ैसला सुनाने और अपना आदेश मनवाने में… और लगता है कि सारे कोर्ट की कार्यवाही वेनिस शहर में चल रही है और पोर्शिया जी वकील बन कर दलीलें दे रही हों पर जैसे हीं मामलों का चरित्र व्यापक समाज के हित में होता है कोर्ट की कार्यवाही को पाला मार जाता है।
और उस फ़ेहरिस्त से कुछ नमूने लिख रहा हूँ जैसे कि राम जन्म भूमि का मसला, तीन तलाक पर आखिरी फ़ैसला, समान नागरिक संहिता, धारा 370 का पुनरीक्षण, एक बुखारा इलाके से आये धर्म गुरु पर लगे 3-4 दर्जन मुकदमे की सुनवाई, 2जी 3जी घोटाले पर फ़ैसला, बोफ़ोर्स का फ़ैसला, कश्मीरी पंडितों की घर वापसी, आतंकवादियों पर चलते मुकदमे या उन्हें फाँसी की सज़ा देने की मुहिम, रेप के मामले, आर्थिक अपराधियों पर नकेल लगाने के मामले आदि कुछ ऐसे मसले हैं जिन पर चलने वाले केस की स्थिति हनुमान की पूँछ या द्रौपदी की चीर की बढ़ती लंबाई से भी प्रतियोगिता करती दिखाई दे रही है और जीतेगी भी।
अगर ध्यान दें तो अल्पसंख्यकों (प्रमुखतः इस्लाम, ईसाई आदि), दलित के लाभ वाले मसले या मात्र सनातन को अपमानित करने वाले विवादों पर कोर्ट की सक्रियता सदैव दर्शनीया होती है, पर जैसे ही मामले बहुसंख्यकों के फ़ायदे में दिखा या किसी केस के त्वरित फ़ैसले से सनातन धर्म के उत्थान में कोई कदम उठ सकता हो तो कोर्ट को काठ मार जाता है और कोर्ट बाह्य अवरोधों का शिकार दिखने लगता है और सुनवाइयां तारीखें पैदा करने का ज़रिया बन कर रह जाती हैं।
ये तारीखें वकीलों की बढ़ते आय का जरिया उसी तरह बन जाती हैं, जैसे लेट नाइट शो चलने पर सिनेमा हाउस के आस पास की चाय पान की दूकानें फ़ायदे का सौदा बन जाती हैं।
प्रसिद्ध राष्ट्रवादी वक्ता पुष्पेन्द्र कुलश्रेष्ठ ने अपने एक भाषण में कहा है कि कुछ अल्पसंख्यक धर्माधिकारियों पर फ़ैसले इसलिये आज तक सुरक्षित रखे जा रहे हैं कि फ़ैसले के बाद दंगे भड़कने की संभावना है।
यही भाव राम जन्म भूमि के मसले पर भी है। कोर्ट और पूर्व की सरकारें स्थिति को यथावत रख कर उसे समय समय पर फ़ूँक मार कर सुलगाये रखना चाहती हैं।
मसला अंदरूनी वही है कि इससे बहुसंख्यकों को सन्तुष्टि या सनातन धर्म का सम्मान हो जायेगा और अल्पसंख्यक समाज का दर्प थोड़ा आहत हो सकता है।
लगभग यही काम आज़ादी के बाद और पहले भी गांधी के हाथों हुआ जिन्होंने बहुसंख्यक भावना को इतना आहत किया कि सदैव शान्त और अहिंसक रहे सनातन समुदाय का एक युवा भावनाओं में बहकर अपराधी बन गया, और बीसवीं सदी के एक महान, अद्भुत चिन्तक का दुःखद अन्त हुआ।
अगर अपने माकूल फ़ैसले से उपजे हालात से निबटने से कोर्ट सक्षम नहीं है तो उस कोर्ट पर लानत है। मात्र हिन्दुओं की सहिष्णुता पर चोट मार कर अपनी न्यायप्रियता के डंके बजाना कैसे उचित ठहराया जा सकता है।
वह दिन दूर नहीं, या कहें तो आ चुका है कि कोर्ट की लिजलिजी न्यायव्यवस्था से ऊब कर लोग नक्सलों, खाप पंचायतों और स्वयंभू माई बापों की शरण में जाकर अपना न्याय प्राप्त कर लें या मेरे विचार से तो कर भी रहे हैं।
न्याय की एकांगी प्रवृत्ति और रेंगती सी चाल जनता को सत्ता और सरकार के द्वारा सुनियोजित संवैधानिक जज़िया जैसा लगता है।
कोर्ट के बदले गुण्डों के माध्यम से अपनी समस्या का निदान ढूँढना आम जनता की फ़ितरत बन सकती है, ठीक उसी प्रकार जैसे डाक व्यवस्था को कूरियर सर्विस खा गई है, बीएसएनएल को प्रायवेट मोबाइल आपरेटर और दूरदर्शन को प्रायवेट चैनल और अब इन सबको ये वेब सिरीज़।
गांधी की सोच कदापि एकांगी नहीं थी बल्कि उनके जैसा सन्तुलित चिन्तक तो सहस्राब्दियों में एक बार पैदा होता है, पर तटस्थ दिखने की कोशिश ने उन्हें अपने भारतीयों से दूर और नवनिर्मित पाकिस्तान प्रेमी दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जितनी बार पाकिस्तान के हक (जायज़ और नाजायज़ पर तो काफ़ी विमर्श हो सकता है) के लिये उन्होंने अनशन किया उसका आधा भी अगर भारतीयों के साथ समानुभूति में कर लिया होता तो कोई ऐसी बुलेट बनी ही नहीं थी जो उनके सीने को चीर सकती, पर ऐसा हुआ और नतीजा आपके सामने है।
गाँधी को जिस जिसने भी आदर्श बनाया सबको शान्ति का नोबेल या रेमन मैगसायसे अवार्ड मिला। मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मंडेला, मदर टेरेसा, अन्ना और केजरीवाल भी उसी फ़ेहरिस्त के पन्ने हैं। ममता का हालिया अनशन और केजरीवाल का उपराज्यपाल के अतिथि कक्ष में 5 सितारा अनशनात्मक आन्दोलन भी गांधी के सात्विक प्रयासों की मॉडर्न छवि है। दरअसल तटस्थ दिखने की (रहने की नहीं) कोशिश ने गांधी को कहीं का नहीं छोड़ा और अब वही ग्रहण भारतीय न्यायालयों पर भी लगने लगा है।
राम रहीम, आसाराम, दाती महाराज जैसे व्यभिचारियों पर भारतीय न्यायालय की तत्परता क्या किसी अल्पसंख्यक बाल-व्यभिचारी पप्पा और हलाला के फ़रमान ज़ारी करने वाले मौलवियों पर भी दिखी है? बस सिर्फ़ इस डर से कि दंगा हो जायेगा या भारत की सेकुलर छवि पर धब्बा लग जायेगा।
उसी फ़िल्म का एक और डायलाग है कि “जॉली जी, कानून अन्धा होता है जज नहीं।” पर इस व्यवस्था के जज को हिन्दुओं की कायरता पर इतना विश्वास है कि शंकराचार्य को भी जेल भेजने की कोशिश से डर नहीं लगता पर शान्तिप्रिय धर्म का इतना खौफ़ है कि हज़ की सब्सिडी बन्द करने के सरकारी फ़ैसले के खिलाफ़ अगर एक पीआईएल कोई दायर कर दे तो दो दिन में सरकार के खिलाफ़ फ़ैसला आ जाये।
अगर देर होती है फ़ैसले के आने में तो देर कीजिये ना, पर भ्रष्ट नेताओं की ज़मानत मिलने में, देश की संप्रभुता को आहत करने वालों की सुनवाई में और उचित संवैधानिक निर्णयों को निरस्त करने वाली याचिकाओं पर। पर होता उलटा है।
दरअसल भारतीय न्याय व्यवस्था को वन्दे मातरम् में साम्प्रदायिकता और उसी माँ को अब्बा के मुँह से 3 तलाक बुलवाने में सेक्युलर होने का एहसास होने लगा है,
संस्कृत में जातिवाद की बू, पर शरीअत की आयतों में मानवतावादी सुगंध महसूस होने लगी है,
हिन्दुत्व की अवधारणा में कट्टरता के तत्व, पर आइसिस के खिलाफ़त की खातिर जंग में इस्लाम का उदारवादी चेहरा उभरता हुआ दिखने लगा है,
हिन्दुओं के घूँघट में दकियानूसी सोच की झलक, मगर बुरके में प्रगतिवादी सोच नज़र आने लगी है,
और सूअर के पोर्क में असहिष्णुता की गंध, पर बीफ़ में धर्मनिरपेक्षता की खुशबू महसूस होने लगी है तो यह डर बेज़ा नहीं ठहराया जा सकता है कि कभी भी विष्णु का संभावित कल्कि अवतार धरा पर अवतरित होकर इस आर्य भूमि से ऐसी तुष्टिकारक न्याय व्यवस्था को छिन्न भिन्न कर भारत में कौटिल्य के अर्थ शास्त्र को अपने आर्यावर्त का नया संविधान और दंड संहिता न बना दे।
सुशान्तिर्भवतु ॥