प्रयागराज में कुम्भ, एक याद छलकी हुई अमृत के बून्द की। जीवंतता उस सभ्यता की जिसमें से जीवन के तृप्त होने के रसायन झरते हैं, जिसमें जीवन में मुक्ति के उपाय मिलते हैं।
प्रयागराज में कुम्भ हमारे सांस्कृतिक अतीत और आधुनिक रूप की झलक। आज़ाद मनुष्य के आए अनगिनत विचार और उन विचारों के अनुरूप जीवन जीने से उत्पन्न हुई अनगिनत परम्पराएं, अनगिनत जीवन शैलियां, अनगिनत पन्थ, कह लीजिए तो अनगिनत धर्म और सम्प्रदाय की एक झांकी।
प्रयागराज में कुंभ विश्व की मानव प्रजाति को जीने का हुनर सिखाने वाली सभ्यता का सबसे बड़ा मानवीय समागम। सबसे बड़ा उत्सव। सबसे बड़ा तीर्थ। जिसका हिस्सा बनकर मनुष्य ऊर्जा से संपूरित होकर उत्साह से निकल पड़ता है अपने जीवन के सफर में।
प्रयागराज में कुम्भ एक जिज्ञासा मनुष्य की अपनी ही सभ्यता के दर्शन की और उस दर्शन से अभिभूत हो अपनी कामनाओं को बहते हुए समय के प्रवाह में धुलकर नया रूप देने की।
लोग कहते हैं आज का मनुष्य अपनी कामनाओं के वशीभूत हो समस्याग्रस्त हो गया है लेकिन ये जीवन ही कामना है जीवन देने वाली शक्ति की। जीवन देने वाले की कामना को जानना उसकी दिशा एक कदम चलना ही जीवन है। कुम्भ का उत्सव इस सतत चलती हुई प्रक्रिया का अस्तित्व है। यकीनन ये जो कुम्भ दिख रहा है प्रयागराज में इस अदृश्य की प्रतिध्वनि को सुना जा सकता है। कुम्भ में सतत प्रक्रिया का साक्षात दर्शन सम्भव है।
भारत को समझना है तो कुम्भ में आइये, कुम्भ को समझिये, देखिये विशाल भारत अपनी सभ्यता के साथ सिमटकर थोड़ी सी जगह में दिख रहा है। सिमटने का ये सिलसिला आकर ठहरता है एक मनुष्य में।
यही आदमी यानि भारत कहता रहा है दुनिया हमारा परिवार है और हम उसमें रहने वाले लोगों को जीने का ढंग सिखाते रहते हैं। यही इसकी विशिष्टता है यही इसका आकर्षण है और यही भारतीयता है।
प्रयागराज में कुम्भ इसी आदमी के विभिन्न रूपों और संस्कृतियों का प्रतिबिंब है। विज्ञान और जीने के नए संसाधनों ने इसे दुनिया के सबसे बड़े मानवीय समागम में तब्दील कर दिया है। विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों, सामाजिक संस्कृतियों, संस्थाओं, विभिन स्थानों पर रहने वाले लोगों का एक स्थान पर उपस्थित होकर एक भारत की जीती जागती तस्वीर बना रहे हैं।
विशाल और उदार भारत का दर्शन किया जा सकता है इस कुम्भ में। दैवीय शक्तियों के इस समागम में भारत मनुष्य प्रजाति के कल्याण के लिए अपनी ही कामनाओं को नया रूप दे रहा है। भारत डूबा हुआ है कुम्भ के आनन्द में। उसे अपने स्वर्णिम अतीत का दर्शन हो रहा है और अपनी नयी जिम्मेदारियों का बोध हो रहा है। शक्ति अपने नये रूप में उसका मार्गदर्शन कर रही है।
इस गौरवशाली और खुशनुमा माहौल में धर्म संसद की अवधारणा, सांस्कृतिक और धार्मिक संस्थाओं, सन्त महात्माओं अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए असन्तोष का छलकना भारत का दुर्भाग्य है। यह असन्तोष इसलिए नहीं है कि कोई गैर ज़िम्मेदार है इसलिये है कि हम दूर हो गए हैं अपनी ही सभ्यता से। अगर रामन्दिर का निर्माण इस सभ्यता के संवर्धन के लिए आवश्यक है तो उसका एक मात्र कारण है हम अपनी सभ्यता से दूर हुए हैं। हमारे पास बहाने बहुत है इस सच को अस्वीकार करने के। हम जिसपर निर्भर है उसको आश्रय देने की सोच रहे है।
ये असन्तोष हमसे दूरी है उस लोकतंत्र की जिसका मौसम चुनावी है इस कुम्भ में। हम जिस पर निर्भर हैं उससे युद्ध की बात करते हैं। प्रयाग राज में कुम्भ एक सन्देश दे रहा है जीवन के युद्ध में हमारी सभ्यता के प्रति समर्पण आज भी युद्ध जीतने का आधुनिक हथियार है।