विषैला वामपंथ : नारीवाद, सामाजिकता का ट्रेड-यूनियनिज़्म

हमारी माँगें पूरी हों!
चाहे जो मजबूरी हो!!

यह नारा हम सबने सुना है, दीवारों पर लिखा देखा है। किसी ने अगर 70-80 का दशक किसी इंडस्ट्रियल टाउनशिप में बिताया हो तो ज़रूर ही सुना होगा।

मेरा बचपन ऐसे ही इंडस्ट्रियल टाउन सिंदरी में बीता। पिताजी फ़र्टिलाइज़र फैक्ट्री में काम करते थे। पूरा शहर ही फैक्ट्री के भरोसे था। सबके घर के राशन का पेमेंट सैलरी मिलने पर होता था। बोनस मिलने पर दुकानों की बिक्री होती थी।

फैक्ट्री के स्कूल में सबके बच्चे पढ़ते थे। पूरा शहर उसी एक हस्पताल के मैटरनिटी वार्ड में पैदा हुआ था। सड़क फैक्ट्री बनवाती थी। बिजली-पानी फैक्ट्री की थी। खेल का मैदान फैक्ट्री ने बनवा के दिया था।

पर मांगें चलती रहती थीं। एक समय देखा, सारे लोग काला रिबन लगा कर ड्यूटी जाते थे। क्या माँगें थीं? सबको हर दो साल में दो शर्ट, दो पैंट के कपड़े और सिलाई, स्वेटर, जूते, बरसाती मिलने चाहिए। उसे पहन कर ड्यूटी जाते थे? नहीं, सबके बच्चे पहनते थे। लोग रिश्तेदारों को दे देते थे। पूरे शहर में सबके पास एक ही रंग का शर्ट और एक ही रंग की पैंट आ गयी।

मतलब लोग फैक्ट्री के कर्मचारी नहीं, दामाद थे।

फिर भी फैक्ट्री नहीं चली. एक पीढ़ी तक लोगों के बच्चों का अप्रेंटिस में चयन हो जाता था, नौकरी मिल जाती थी। अगली पीढ़ी ने नौकरी के लिए दर दर भटकना देखा। उसके बाद बोनस और प्रमोशन बन्द हुआ। फिर तनख्वाह समय से मिलना बंद हो गया। फिर फैक्ट्री ही बन्द हो गई। लेकिन यह नारा लगना बन्द नहीं हुआ।

वामपंथ का यह स्टाइल आजमाया हुआ है। माँगते रहो। वह मिल जाये तो कुछ और माँगो। अपनी माँगों को उस असामान्य और अतार्किक सीमा तक ले जाओ जब तक कि देना असंभव ना हो जाये। जिससे कि फिर विक्टिम कार्ड खेलना संभव हो सके। किसी भी व्यवस्था से तबतक छेड़छाड़ करते रहो जबतक पूर्ण अव्यवस्था नहीं हो जाये।

पिछले दिनों हमारी डिपार्टमेंट की टीचिंग में एक लड़की ने कुछ ऐसी ही टीचिंग दी। उसने एक ट्रांसजेंडर का उदाहरण दिया और बताया कि अगर कोई ट्रांसजेंडर हो (यानि पुरुष, जो अपने को स्त्री समझता हो, या स्त्री जो अपने को पुरुष… ध्यान दें, ट्रांसजेंडर की परिभाषा में उसमें इस मनोवैज्ञानिक असामान्यता के अलावा कोई शारीरिक या हार्मोनल विकृति नहीं होती) तो उसे गलत जेंडर से संबोधित करना बुरा लग सकता है। इसलिए किसी का जेंडर आपको assume नहीं करना है।

किसी से भी मिलिए तो उससे पूछ लीजिये कि वह अपने को किस जेंडर का मानता है। उसके लिए ‘हिज़’ या ‘हर’ जैसे जेंडर-स्पेसिफिक सर्वनाम का प्रयोग गलत हो सकता है… भाषा में नए जेंडर-न्यूट्रल सर्वनाम लाये जाने चाहिए।

जैसा कि होता है, कोई बात पॉलीटिकल करेक्टनेस की सीमा में होती है तो सब चुपचाप सुनते हैं। मुँह खोल कर बोलने का जोखिम मैं उठाता हूँ। तो आदत से लाचार मैंने पूछा – अगर मैं किसी डॉक्टर के ऑफिस में जाऊँ और वह मुझसे पूछे कि मैं पुरुष हूँ या स्त्री तो यह पूछा जाना मुझे तो बहुत बुरा लगेगा… तो मेरे बुरा लगने का क्या?

और अगर कोई पुरुष है, पर वह अपने को स्त्री समझता है तो यह उसकी समस्या है। यह सबकी समस्या क्यों हो गई? उसे मदद की ज़रूरत है, उसका इलाज होना चाहिए, अगर संभव हो तो। अगर वह चाहता है कि उसे स्त्री के संबोधन से ही पुकारा जाए, तो वह आये और स्वयं अपने बारे में बताए। उस एक नमूने के लिए पूरा समाज अपना व्यवहार, अपना बोलचाल क्यों बदले?

सभी असहज हो गए। सतरंगे रिबन वाली एक बालिका नाराज़ हो गई। वह आज भी मुझे घूर कर देखती है। जल्दी जल्दी लीपापोती करके विषय बदला गया।

फेमिनिज़्म आज अपनी उस अतार्किक सीमा तक पहुँच रहा है, जबतक वह पूरी सामाजिक व्यवस्था को नष्ट ना कर दे। और यह अकेले नहीं है। इसके साथ LGBT और जेंडर आइडेंटिटी वालों की पूरी जमात है।

बात अब वोटिंग के अधिकार, शिक्षा और नौकरी की समानता के विषय की रह ही नहीं गयी है, क्योंकि वह तो मिल ही चुका है, और वह मिलना ही चाहिए, इसमें किसी के आपत्ति करने का सवाल ही नहीं है। लेकिन उद्देश्य न्याय या समानता है ही नहीं।

नीयत है कि नई नई और अतार्किक, अव्यवहारिक माँगें उठाई जाएँ… और तब तक यह चलता रहे जबतक समाज और परिवार नाम की व्यवस्था बिल्कुल खत्म ही ना हो जाये। नारीवाद सामाजिकता का ट्रेड-यूनियनिज़्म है। जैसे उनकी माँगें और हड़तालें फैक्ट्री के बन्द होने तक चलती रहती हैं, फेमिनिज़्म समाज के नष्ट होने तक नित नए पैंतरे लेता रहेगा।

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