कई बार हम घरेलू और जीवनयापन सम्बंधित समस्याओं से जूझने में इतना व्यस्त रहते हैं कि वृहद परिदृश्य की अनदेखी कर जाते हैं।
मैंने पिछली 12-13 जुलाई 2018 को विश्व के बदलते सामरिक परिप्रेक्ष्य के बारे में लिखा था। [मौजूदा सामरिक हालात में भारत की ज़रूरत है एक मज़बूत सरकार और प्रभावशाली नेतृत्व] आज उसे विस्तार देने का प्रयास करता हूँ।
यह अब स्पष्ट है कि इस सदी में अमेरिकी सुपरपावर के एकक्षत्र प्रभुत्व का अंत हो रहा है, चीन एक जूनियर सुपरपावर बन कर निखर रहा है और भारत एक सहायक सुपरपावर के रूप में उभर रहा है।
पश्चिमी यूरोप वित्तीय संकट, माइग्रेंट्स और रिफ्यूजी, आतंकवाद, ब्रेक्सिट, आम आदमी के हिंसक प्रदर्शनों, लोकतंत्रीय व्यवस्था में अविश्वास और यूरोप की सीमाओं पर राजनीतिक अस्थिरता एवं असुरक्षा (जॉर्जिया, यूक्रेन, अर्मेनिया, अज़रबैज़ान, टर्की, सीरिया, लेबनान, मध्य पूर्व, लीबिया) के प्रकोप से जूझ रहा है।
अमेरिका और चीन के मध्य व्यापार को लेकर मतभेद इतने गहरे हो गये है कि टेलिकम्यूनिकेशन्स एक्विपमेंट बनाने वाली चीन स्थित विश्व की सबसे बड़ी कंपनी, हुआवेई, का बिज़नेस अमेरिका और यूरोप में संकट मे आ गया है और हुआवेई के मालिक की पुत्री कनाडा मे बंधक है।
वेनेज़ुएला और ज़िंबाब्वे की करेन्सी और अर्थव्यवस्था फेल हो गयी है; रूस की अर्थव्यवस्था घिसट रही है। चीन में मंदी छाई हुई है और लाखों करोड़ों के NPA (खराब लोन) से जूझ रहा है।
कई प्रकार के कार्य स्वचालित मशीनों, रोबोट और कंप्यूटर द्वारा किये जाने लगे हैं जिससे व्यापार की प्रक्रिया और रोज़गार के अवसर बदल रहे हैं।
माल, पूँजी, सेवाएं और लेबर (जैसे बांग्लादेश में कपड़े बनवाना) कंप्यूटर या सेल फ़ोन से विश्व में कही भी भेजी जा सकती है। इससे सरकारों का प्रभाव कम होता जा रहा है और वे जटिल समस्याओ से निपटने में अपने आपको असमर्थ पा रही हैं।
भारत के चारों ओर अगर देखें तो एक तरफ आतंकी देश है, दूसरी तरफ चीन है और दक्षिण में स्थित देशों में भारत और चीन के मध्य सामरिक प्रायोगिता है। तालिबान से समझौता करके अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकलना चाहता है। ईरान अमेरिकी प्रतिबंधों से जूझ रहा है। यमन में युद्ध चल रहा है।
किसी भी सीमित महत्व की घटना और शिकायतों के समर्थन में एकाएक भारी जनसमूह सड़क पर आ जाता है और हफ़्तों हिंसक प्रदर्शन करके सरकार गिरा देता है या सरकार की वैधता को बुरी तरह खंडित कर देता है। ट्यूनीशिया, मिस्र, फ्रांस, आर्मेनिया, जॉर्जिया, सीरिया, यूक्रेन, वेनेज़ुएला, ऐसे प्रदर्शनों के प्रमुख उदाहरण हैं।
एक तरह से हमारी दुनिया इतनी जटिल होती जा रही है कि किसी एक राष्ट्र या संस्था – जैसे कि संयुक्त राष्ट्र – के लिए इसे मैनेज करना मुश्किल हो रहा है।
अमेरिका और यूरोप द्वारा लगाए गये प्रतिबंधों और वैश्विक राजनीतिक उथल-पथल से अपने-आप सुरक्षित करने के लिए पिछले वर्ष रूस ने लगभग 274 टन सोना खरीदा. यही हालत चीन और टर्की की है।
लेकिन अमेरिकी डॉलर का दबदबा समाप्त नहीं हो सकता। अंतर्राष्ट्रीय ऋण का 62 प्रतिशत, विदेशी मुद्रा कारोबार का लगभग 44 प्रतिशत और विदेशी मुद्रा भंडार का लगभग 63 प्रतिशत अभी भी अमेरिकी डॉलर में है। यूरोपियन यूनियन के देश अपनी ऊर्जा आयात बिल का 80 प्रतिशत भुगतान अमेरिकी डॉलर में करते हैं जब उनकी ऊर्जा आयात का केवल 2 प्रतिशत अमेरिका से आता है।
क्या कोई भी राष्ट्र चीन की रेन्मिन्बी, रूस का रूबल, या यूरोपियन यूनियन के यूरो में विदेशी मुद्रा का भंडार रखेगा? नहीं।
क्योंकि विवाद की स्थिति में किसी भी राष्ट्र को चीन या रूस की सरकार या न्यायालय व्यवस्था में भरोसा नहीं है। यूरो संरचनात्मक खामी के कारण डाँवा-डोल है। क्योंकि किसी भी करेंसी की मज़बूती का आधार उस देश की व्यवस्था में अंतरराष्ट्रीय समुदाय का निहित विश्वास है।
बिना विश्वास के कोई भी करेंसी कागज़ का एक टुकड़ा मात्र है। वेनेज़ुएला या जिंबाब्वे से पूछ कर देखिए।
इस परिद्रश्य में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कूटनीति की विशेषता यह है कि एक विषयवस्तु या युद्ध में आमने-सामने खड़ी पार्टियों से भी भारत के मधुर संबंध हैं।
उदाहरण के लिए, यमन में सउदी अरेबिया एवं संयुक्त अरब एमीरात, और ईरान परस्पर विरोधी खेमे में हैं, लेकिन भारत के तीनों देशों के साथ अच्छे संबंध हैं। यूक्रेन पर रूस एक तरफ, यूरोपियन यूनियन और अमेरिका दूसरी तरफ, लेकिन भारत का सबके साथ मित्रवत व्यवहार है।