मुझे लगता है बचपन में देखी हुई फ़िल्में मेरे मानस पटल पर बहुत गहरे से अंकित हुई हैं. चाहे मुझे पूरी फिल्म याद न रहे लेकिन फिल्म का केंद्र बिन्दु और कई सीन ज्यों के त्यों याद रह गए हैं.
जैसे बचपन में दूरदर्शन पर एक फिल्म देखी थी कमल हसन अनिता राज अभिनीत “ज़रा सी ज़िंदगी”. उस फिल्म के दो सीन मुझे बहुत अच्छे से याद है, पहला बेरोज़गारों का झुण्ड जो अपनी डिग्री वाली टोपी पहने हुए हैं अपनी बेरोज़गारी के आलम में भूखे प्यासे एक सेब पर टूट पड़ते हैं…. और वह सेब किसी के हाथ नहीं आता.
दूसरा तीन दोस्तों पर आधारित इस फिल्म में एक बेरोज़गार दोस्त का अंत में मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाना लेकिन खुद को ऐसे पा लेना कि वह अपने शरीर के हर अंग पर अपना नाम गुदवा लेता है, वहीं दूसरा मित्र अपने ज़मीर को बेचकर गलत तरीके से पैसा कमाकर रईस हो जाता है.
यह फिल्म 1983 में आई थी तब मैं मुश्किल से आठ वर्ष की थी, दूरदर्शन पर और दो चार साल बाद आई होगी, लेकिन एक बारह वर्ष की बालिका के मन में इस फिल्म ने अपना बहुत गहरा प्रभाव छोड़ा.
आज लोग मोदीजी को युवाओं को नौकरी न दिला पाने का ताना देते हैं. आप यह बताइये ना 1983 में किसकी सरकार थी और ऐसा कैसा बेरोजगारी का आलम रहा होगा कि उस दौर में ऐसी दर्दनाक फिल्म बनाना पड़ी.
चलो उस दौर में रहा होगा, लेकिन आज हम आपसे पूछते हैं, क्या आप इन तीस पैंतीस सालों में युवाओं को रोजगार भी न दिला सके. और आज जब मोदीजी की Start Up, Stand Up India जैसी योजनाओं का लाभ उठाकर आज का युवा आगे बढ़ रहा है, जब यहाँ नौकरी के बजाय स्वरोजगार को प्रेरित होकर योजनाओं को कार्यान्वित किया जा रहा है तो आप उनका पकौड़ा तलते हुए मखौल उड़ाते हैं.

फिल्म जो थी सो थी चलिए आपको फिल्म का अंत बताते हैं. फिल्म का नायक यानि कमल हसन नौकरी के सारे प्रयासों के बाद और निराशा के बादलों से निकलकर अपने हुनर के बल पर एक सलून शुरू करता है. जहाँ उसके ही पिता एक दिन ग्राहक बनकर आते हैं. और पिता और पुत्र के बीच एक सार्थक संवाद होता है- कि यदि नौकरियों की कमी है तो क्यों न नए विकल्प खोजे जाएं, हर व्यक्ति में कुछ न कुछ हुनर होता है, और कोई काम छोटा नहीं होता. तो उस हुनर को ही रोजगार बना लिया जाए तो कैसी शर्म.
मैंने अपना करियर कम्प्यूटर क्लास चलाने से शुरू किया था, तब 486 कम्प्युटर भी मैंने पांच हज़ार में खरीदा था और 50 रुपये महिना लेकर मोहल्ले की गरीब लड़कियों को कम्प्युटर सिखाया करती थी. उन दिनों मेरे पास 15 – 20 लड़कियां कम्प्युटर सीखने आती थीं.
पैसा कम था लेकिन एक संतुष्टि थी अपना काम है… और आत्मविश्वास इतना कि एक दिन अपने हुनर के बल पर काम को आगे बढाऊंगी. आज अपनी खुद की वेबसाइट है, नाम है लोग सम्मान की नज़र से देखते हैं, राष्ट्र के लिए गिलहरी सा ही सही, पूर्ण समर्पण के साथ सहयोग है…
तो काम कोई छोटा नहीं होता… एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों…. यह ज़रा सी ज़िंदगी आपको इतना कुछ दे जाएगी कि आपको खुद को यकीन नहीं आएगा… बस एक छोटा सा सपना देखिये और उसे पाने के लिए जी जान से जुट जाइए… और मेरा वादा है उस सपने के पूरा होने से पहले ही एक और उससे बड़ा सपना आपकी आँखों में चमक रहा होगा… तो Stand Up and Start Up…