मार्कस तुलियस सिसरो (Marcus Tullius Cicero) रोमन साम्राज्य काल के एक जानेवामे वक्ता, विचारक और राजनयिक थे। उनके एक प्रसिद्ध उद्धरण का अनुवाद यूं है-
‘राष्ट्र अपने मूर्ख और महत्वाकांक्षी लोगों के बावजूद ज़िंदा रहेगा, लेकिन भीतरघातियों से बचना कठिन कर्म है। बाहरी शत्रु तो झण्डा ले कर आता है, ये गद्दार तो अपनों में से ही होते हैं, अपनी ही बोली बोलते हैं और उनकी विषाक्त बातें नालियों से होकर, गलियों से गुज़रती है और सत्ता के प्रासादों तक सुनी जाती हैं।
क्योंकि वो गद्दार, गद्दार दिखते नहीं, हम आप जैसे ही दिखते हैं, उनके चेहरे और पहनावे भी हम जैसे ही होते हैं। वे तर्क भी वही देते हैं जिनकी भाषा हमें समझ में आती है और भाती है।
मनुष्य के मनों में गहरे दबा दिये जो भी नीच भाव हैं, इसके शब्द उन्हें ही आवाज़ देकर ऊपर उठाते हैं। देश की आत्मा को ये गद्दार सड़ा देते हैं, उसकी नींव को खोखली कर देते हैं ताकि जब ये अपना अंतिम धक्का दें, वो भरभराकर गिर जाये।’
कल हमारे एक परिचित काँग्रेसी ने कुछ ऐसा लिखा जिसे पढ़कर मुझे सिसरो का ऊपर दिया उद्धरण ही स्मरण हुआ। क्यों, यह उनका लेख पढने के बाद बताते हैं।
वे लिखते हैं –
जब आप कहते हैं – सरकार की कुछ जिम्मेदारी होती है। संवैधानिक मजबूरी है। अंतरराष्ट्रीय संबंध भी देखने हैं। फलानी चीज़, ढिमका कारण…
तो आप स्वीकार कर रहे होते हैं कि आपने जो विचार प्रकट किए थे, वो बिना सोच विचार के, बिना व्यवहारिक स्तर पर जांच परख कर प्रकट किए गए थे।
जब आप गांधी को गाली दिलवाते हो, अहिंसा का मज़ाक उड़ाते हो, और फिर उसी गांधी को महिमा मंडित करते हो, उसकी विचारधारा का ही प्रचार करते हो… तो आप खुद अपनी वैचारिक बेईमानी को स्वीकार कर रहे होते हो।
जब आप नेहरू को गाली देते हो, और उसी के द्वारा प्रतिपादित नीतियों को ही विकास के लिए उपयुक्त मान आगे बढ़ाते हो, तो आप अपनी राजनीतिक कायरता को स्वीकार कर रहे होते हो।
जब आप विदेश नीति पर बड़ी बड़ी बातें बनाकर फिर पुरानी विदेश नीति को ही अपना लेते हो, तो आप अपने मानसिक दिवालियेपन को स्वीकार कर रहे होते हो।
जब आप सरकार में आने के बाद दक्षिणपंथी नीतियों को ताक पर रख देते हो, तो आप दक्षिणपंथ की असफलता को स्वीकार कर रहे होते हो।
जब आप प्रधान चौकीदार बनकर संघ और सरसंघचालक को महत्वहीन कर देते हो तो आप देश की जनता को विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे होते हो कि देश और देशवासी आपके लिए सर्वोपरि हैं।
मोदीजी, यही आपकी सबसे बड़ी उपलब्धि है कि आपने दक्षिणपंथ, संघ और संघ विचारधारा का खोखलापन खुलकर सामने ला दिया है।
उन काँग्रेसी परिचित के उपरोक्त लेख पर मेरा जवाब –
स्पेसिफिक बात करना सही होता है, क्या कहा था या क्या नहीं। लेकिन ये तो ‘पंद्रह लाख’ ब्रिगेड के लोग होते हैं उनका कुछ किया नहीं जा सकता और न जवाब देने की आवश्यकता होती है।
वैसे गांधी जी को मोदी जी ने गालियां दिलवाई, ये पहली बार सुन रहा हूँ… गंभीर आरोप है जिसको प्रमाणित करना चाहिये।
रही बात हम जैसे मोदी समर्थकों की, तो हम मोदी जी को समर्थन देते हैं लेकिन मोदीजी को मेरा नाम भी पता होगा या नहीं, मुझे पता नहीं और परवाह भी नहीं।
मैं राष्ट्र के लिए सोचता हूँ इसलिए मोदी जी को समर्थन देता हूँ। गांधी जी की खुलकर आलोचना करता हूँ लेकिन उनके निर्णयों की आलोचना करता हूँ, अन्य स्तर की नहीं।
और हाँ, शायद गांधी जी का अकेला ऐसा फेसबुकिया हिन्दी आलोचक हूँ जो निष्ठुरता से उनकी आलोचना करने के बाद और बावजूद यह कहता हो कि गांधी जी से लेने के लिए भी बहुत है। उनके तथाकथित या प्रचारित अहिंसा का जमकर मज़ाक उड़ाने के बावजूद। कहाँ विरोधाभास है इसमें? भीष्म, द्रोण प्रणम्य भी रहे और वध्य भी। पढ़िएगा महाभारत कभी।
नेहरू के बारे में भी यही कहा जाएगा। व्यक्ति की हर बात पूज्य नहीं होती। बाकी काँग्रेसी तो उनके राजवंश की विष्ठा को भी निष्ठा से पूजते होंगे इसलिए गांधी नेहरू के बारे में नीर-क्षीर विवेक उनके समझ से परे हो सकता है।
बाकी मैं तो नाचीज़ हूँ, मोदी जी इस बात को बेहतर समझते होंगे।
विदेश नीति के बारे में पुरानी नीति अगर कारगर होती तो मोदी जी ने जो क्षण दिखाये हैं, वे इन्दिरा जी भी दिखा नहीं पायी थी। और हाँ, कोई पाकिस्तानी वज़ीरे आज़म भारत के प्रधानमंत्री को गंवार औरत कह गया – वे प्रधानमंत्री मोदी जी तो थे नहीं।
परिस्थिति के अनुसार बदलाव करने पड़ते ही है। संसार का नियम है। अगर बिलकुल जो बोला वैसे ही नहीं किया, या समय और अवरोधों के कारण विलंब आते हैं, वे समझदार लोग समझते हैं।
दुनियादारी के भाषा में कहें तो ऐसे बाल की खाल निकालने बैठे तो विवाह जिंदगी भर चल ही नहीं पाएंगे। तंज़ ताने चलते रहते हैं लेकिन विच्छेद की हद तक नहीं। कभी अपने वैवाहिक जीवन की ओर को भी मुड़कर देखना चाहिए, समझदारी आ जाएगी।
संघ की चिंता काँग्रेस कब से और क्योंकर करने लगी?
कभी पंचतंत्र भी पढ़ा कीजिये, वे बच्चों की कहानियाँ नहीं हैं। मूल संस्कृत को पढ़िये, भाषा टीका के साथ। वहाँ एक तंत्र का नाम ही है मित्रभेद। बाकी समझ गए ही होंगे।