वेदों में विज्ञान, जो ढूंढते हैं, उनके प्रयास के पीछे छिपे भाव के मूल में ही मुझे दोष नज़र आता है।
इस तरह से हम विज्ञान को प्रामाणिकता का पैमाना बना देते हैं।
जबकि सत्य यह है कि जिसे हम विज्ञान मानते या समझते हैं वो असल में मानव के उपभोग का ज्ञान मात्र रह गया है।
और इस उपभोक्तावाद ने हमे कहाँ ले जाकर खड़ा कर दिया, इसकी भयावहता से अब भी हम अनजान हैं।
मात्र यही कारण है जो मैंने अपनी पुस्तक ‘वैदिक सनातन हिंदुत्व’ के शीर्षक में यह पंच लाइन जोड़ी, ‘अगली सदी का एकमात्र प्रवेश मार्ग’।
जो भविष्य को देख पा रहे हैं वो चिंतित हैं।
होना तो यह चाहिए कि, ‘विज्ञान में वेद हैं या नहीं’, अगर यह पैमाना बना रहता तो मानव के कल्याण का भाव भी बना रहता, जो वैदिक ऋषियों के चिंतन का मूल है।
जो विद्वान वेद में विज्ञान ढूंढते हैं वे शायद यह नहीं जानते कि, वेद में पूरी सृष्टि है, वो सिर्फ मानव तक सीमित नहीं है, बल्कि उसके केंद्र में हर जीव और जड़ है, और यही उसे विशिष्ट बनाती है।
अपनी पुस्तक ‘वैदिक सनातन हिंदुत्व’ के लेखन में मेरा अपना उपरोक्त दृष्टिकोण स्पष्ट था, और लिखते समय मेरी दृष्टि उन पाठकों पर थी, जो विभिन्न कारणों से हिन्दू और हिन्दुस्तान की मूल संस्कृति से दूर हो रहे हैं, और इसलिए जीवन से दूर हो रहे हैं।
ये वर्ग हिंदी से भी दूर होता जा रहा है। इसी कारण मैंने इसे सरलतम हिंदी में लिखने का प्रयास किया, जो कि एक मुश्किल काम था।
दृष्टि और दृष्टिकोण दोनों स्पष्ट थे कि मुझे वेदों को क्लिष्ट रूप में नहीं परोसना है, और फिर शब्दार्थ से आगे सिर्फ भावार्थ तक भी सीमित नहीं करना है, बल्कि इसे ‘जीवनार्थ’ के स्तर पर ले जाना है।
ऋषियों ने वेदों के मूल को जीवन में भी उतारा, यही कारण है जो हमारी संस्कृति जीवंत है, और उसमें वैदिक दर्शन का व्यवाहरिक पक्ष है।
यह इतने गहरे तक रची बसी है कि इसके अंश आज भी हमारी जीवन संस्कृति में आसानी से मिलते हैं।
बस इसी अंश को ढूंढ कर पाठक तक पहुंचाने का प्रयास था। इस प्रयास में मैं सफल रहा, ऐसा प्रतीत होता है। प्राप्त हो रही प्रतिक्रियायें उत्साहित करती हैं।
अमेज़न पर बीसियों प्रतिक्रिया अंगरेज़ी में हैं। कल भी एक विशेष प्रतिक्रिया पढ़ने को मिली, जिसने मुझे यह सब लिखने के लिए प्रेरित किया।
अधिकांश प्रतिक्रियाओं में, जो अंग्रेज़ी में आ रही हैं, एक बात समान रूप से है, और वो है यह कहना कि पुस्तक हिंदी में है।
आखिर यह आश्चर्य क्यों?
अभाव स्वभाव को बनाता है।
कहीं अंग्रेज़ी में वैदिक दर्शन का सरल स्पष्ट और व्यवहारिक रूप में उपलब्ध ना होना इसका कारण तो नहीं?
शायद यही कारण हो।
अब किया भी क्या जा सकता है, अंगरेज़ी में देवदत्त पटनायक जैसे लेखक हैं जो हिंदुत्व को माइथोलॉजी अर्थात मिथ के रूप में मूलतः काल्पनिक मानते हैं, और दूसरी तरह अमीश त्रिपाठी टाइप लेखक हैं जो उस कल्पना में जाकर पौराणिक कथाओं को ही भ्रमित कर दे रहे हैं।
ये दोनों ही बेस्ट सेलर हैं, अर्थात बाज़ार में खूब बिक रहे हैं, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि खरीददार प्यासा ही है।
वो प्यासा ही रहेगा, क्योंकि वो जिस विज्ञान के आस पास भटक रहा है, वो प्यास बुझाता नहीं बल्कि आग लगाता है।
जबकि वैदिक काल से चला आ रहा सनातन जीवन दर्शन, जिसे आजकल हिंदुत्व कहा जाता है, वो मानव को हर स्तर पर जाकर संतुष्ट संतृप्त करते हुए उसके जीवन को आनंद से भर ही नहीं देता बल्कि मुक्त कर देता है, अनंत आकाश में स्वतंत्र विचरण करने के लिए।