‘एलिफ़ेंट इन द रूम’ एक इंग्लिश मुहावरा है। इसका प्रयोग साधारणत: ऐसी परिस्थिति में होता है जब समस्या सामने है लेकिन उसका सामना करने की न हिम्मत है न इच्छा तो उसे जबरन अनदेखा कर के बिलकुल नॉर्मल बर्ताव करने की कोशिश की जाती है मानो वो वहाँ है ही नहीं। ऐसी परिस्थिति का वर्णन करना हो तो लिखा या बोला जाता है कि देअर इज़ एन एलिफ़ेंट इन द रूम।
मतलब समस्या है, बहुत ही बड़ी है और कोई उससे भिड़ने की हिम्मत नहीं रखता इसलिए उसे झेले जा रहे हैं मानो कोई समस्या ही नहीं है।
इस चित्र में जो रंग अलग से डाले हुए हैं, जो हैं लाल, हरा, सफ़ेद एवं भगवा, अब आप को मुहावरा और चित्र का संबंध समझ में आया होगा। अब एक सिचुएशन की कल्पना कीजिये। बहुत आसान होगा कल्पना करना।
कल्पना कीजिये कि आप के कॉलोनी में या बिल्डिंग में एक गुंडों की टोली घुस आई है। हर घर में पुरुष जो भी है, बंद दरवाजे के पीछे खड़ा रहकर कानों में प्राण लाकर सुन रहा है कि कोई तो बाहर निकले तो मैं भी साथ हो लूँ, अकेले निकलूँ तो मारा जाऊंगा।
कोई नहीं निकलता और वो टोली तबियत से सब का डॉ नारंग कर सकती है क्योंकि हर कोई दूसरे किसी के बाहर निकलने की राह देख रहा है। राह ही देखता रह जाता है।
यहाँ अपना एक पुराना लेख सम्मिलित कर रहा हूँ क्योंकि उसमें दो किस्से हैं जो हल बता रहे हैं।
दो बोधकथाएँ। एक लिखित, एक वीडियो।
दो किस्से बता रहा हूँ। दोनों सच हैं। एक मेरे चचेरे भाई का है, दूसरा हम सरे आम जहां तहां होते देखते रहते हैं, फिर भी मिसाल के तौर पर एक लिंक दे रहा हूँ। पहले बात करते हैं हमारे भैया की।
वे हॉस्टल में रहते थे। आज वे 68 के हैं तो समय का अंदाज़ लगा लीजिये, तब रैगिंग सब जगह जमकर होता था। इनका कॉलेज कुछ ज्यादा कुख्यात था। इनके ममेरे भाई वहाँ पढ़कर गए थे, तो इनको वहाँ के किस्से पता थे।
इसलिए इन्होंने सभी फ्रेशरों को इकट्ठा कर के प्लान बनाया। तब कोई मोबाइल तो नहीं होते थे इसलिए स्टील की प्लेट चम्मच से बजाकर सब को सावधान करने की योजना बनी। वैसे भैया काफी खुराफाती दिमाग के धनी थे तो कुछ और भी आइडिया दिए जो सब को स्वीकार हुए, आगे पढ़िये, समझ जाएँगे।
रात होने से पहले ही सभी लड़के शहर जाकर स्पोर्ट्स शॉप खोजकर हॉकी स्टिक ले आए। भैया जी तो एड्मिशन फॉर्म में ही हॉकी में अपना इंटरेस्ट ज़ाहिर कर चुके थे और सामान में ही साथ ले गए थे। वैसे कोई ढंग के प्लेयर तो थे नहीं लेकिन खेल के नियम जानते थे और दौड़ने का दमखम था। याने कोई खेल को लेकर सवाल पूछे तो जवाब दे सकते थे।
रात को जिसके दरवाज़े पर दस्तक हुई उसने पहले थाली बजाई। फटाफट सब फ्रेशर अपने अपने दरवाज़े खोलकर कंधे पर हॉकी उठाए चले आए। रैगिंग लेने आए सीनियर्स झेंप गए, इन्होंने बाकायदा सब का अभिवादन किया, स्वागत किया और गपशप कर के विदा किया। कोई मार पीट नहीं हुई, सब शांति से निपटा।
सीनियर्स की खुजली मिटी नहीं थी। दूसरे दिन उन्होंने सब के दरवाज़े बाहर से बंद किए और एक के दरवाज़े पर दस्तक दी। यह भी अपेक्षित था और इसका भी इलाज सोचा हुआ था।
उस कमरे के दो फ्रेशर्स ने बेड, स्टडी टेबल सरका कर दरवाज़े से भिड़ा दिये और खिड़की खोलकर न्यूज़पेपर जला दिये। ‘आग आग’ चिल्लाना शुरू किया। उनके साइड वाले और भी लड़कों ने यही किया, सभी ‘आग आग’ चिल्लाने लगे और खिड़कियों में खड़े रहकर थालियाँ हॉकी से पीटने लगे। झख मारकर वार्डेन को आना पड़ा, सीनियर्स को खाली लौट जाना पड़ा।
इसके बाद की रात तीस में से छह लड़के हॉकी लेकर फ्लोर के कॉरिडॉर में पहरा देने लगे। दो दो घंटे की शिफ्ट। किसी सीनियर की हिम्मत नहीं हुई। ऐसा हफ्ता भर चला।
सीनियर्स की खीज बढ़ती जा रही थी। ‘साला हमने तो अपने सीनियरों से मार खाया था, ये जूनियर हमसे मार काहे नहीं खा रहे’। नाक का सवाल बना लिया और एक दिन भैया को दस-बारह सीनियरों ने घेर कर पहले उद्दंडता, फिर गाली गलौज और उसके बाद बहुत थप्पड़ घूंसे मारे।
भैया वैसे 6 फीट 3 इंच हाइट और काठी के भी मज़बूत… तो जितना लौटा सके उतना लौटाया लेकिन इतनों के सामने अकेला कहाँ तक टिकता। लंगड़ाते हुए रूम पर आए पर कम्प्लेंट नहीं की। लेकिन नाइट वॉच बरकरार रखा।
तीन दिन में ठीक हुए तो सब से दबंग सीनियर को और उसके साथ घूमते दो चेलों को अचानक घेरकर भरपूर कंबल कुटाई कर दी। वे लंगड़ाते भी न जा सके, उनका कराहना सुनकर औरों को उन्हें उठाना पड़ा।
दूसरे दिन भैया पूरी टोली के साथ फूलों का गुच्छा और ‘गेट वेल सून’ के कार्ड लेकर उस सीनियर के कमरे में जा धमके। शांति से बात की।
‘इससे किसी का भी भला नहीं होनेवाला। हम सभी अच्छे घरों से आए हुए मेहनतकश छात्र हैं, अच्छे और ऊंचे नंबरों से पास हुए है तभी नेशनल श्रेणी के इस संस्थान में दाखिला ले पाये हैं। ऐसे मामलों से कोई अपना भविष्य नहीं खराब करें, यह बात यहीं रुके, क्या खयाल है? इस पर बियर से चीयर्स कर लें?’ झोले में हाथ डाल कर बॉटल से बॉटल खनकाई।
सुलह हो गयी और बाद में कोई लफड़ा नहीं हुआ।
दूसरा किस्सा हम रोज़ कहीं न कहीं होते देखते हैं। मिसाल के तौर पर एक वीडियो लिंक दे रहा हूँ। विशुद्ध सीनाज़ोरी वाला किस्सा है। थोड़े या बहुत फर्क से यह किस्सा हर जगह होता है। हर नया किस्सा इस फर्क को और बढ़ाता है।
लेकिन हमारे नेताओं को कोई फर्क नहीं पड़ता, पुलिस के आला अफसरों को भी फर्क नहीं पड़ता। वे सुरक्षित हैं, बच्चों का करियर और उसके बाद की लाइफ विदेश में ही करने का इंतजाम कर चुके हैं आम तौर पर।
फर्क पड़ता है आम पुलिस कर्मी को। दंगाई उसे जान से मारे तो उस हुतात्मा पुलिस कर्मी को मिलनेवाला मुआवज़ा, पुलिस के हाथों मारे गए दंगाई को मिलनेवाले मुआवज़े से बहुत कम होता है। और मूल बात तो यह है कि पुलिसकर्मी का मुआवज़े पर हक़ है, दंगाइ तो गुनहगार है; उसे मुआवज़ा मिले ही क्यों?
हमें सामान्य पुलिसकर्मियों का साथ देना चाहिए। अगर बीस पुलिसवाले पांच सौ की भीड़ का सामना कर रहे हों तो घर से निकल आयें। आप दो हज़ार लोग उन बीस पुलिस के साथ होंगे तो भीड़ को दुम दबानी पड़ेगी। रक्तपात भी नहीं होगा और भविष्य में आप के घर भी सुरक्षित रहेंगे।
और सब से बड़ी बात, नेता वहीं जाता है जहां बड़ी भीड़ होती है। जिसके पीछे भीड़ नहीं वो नेता नहीं होता। आप की आवाज़ सुनी जाएगी।
नेता के साथ न देने से आप का भविष्य धूसर होने का रोना मत रोईये, वही होगा। आप का साथ न मिलने से नेता का भविष्य धूसर होना चाहिए। यही वास्तव है और यही होना चाहिए। अपनी शक्ति को जानिए, लेकिन इसके लिए एक होना होगा, एक दूसरे से मिलना होगा। संवाद बढ़ाना होगा।
यही होने से समाधान है, यही न होने से समस्या है ।
लोकसभा चुनाओं के बाद बताऊंगा कि ये कैसे किया जा सकता है, तब तक MP/ मप्र (मर्डर प्रदेश) को याद रखिए और जो नोटासुरों से बहकाये गए थे उनसे भ्रातृभाव से काम लीजिये, इस घड़ी में एकता आवश्यक है।
काँग्रेस की ओर से हर तरह का कमीनापन आज़माया जाएगा, काफी क्रिएटिव लोग हैं इस बारे में। और उनका साथ देनेवाले सरकारी कर्मचारी कोई मंगल ग्रह से नहीं आते। यहीं हमारे ही बीच से आते हैं।