घृणा और बेइज़्ज़ती की जियोपॉलिटिक्स

सैमुअल हंटिंगटन (Samuel Phillips Huntington) की बहुचर्चित किताब ‘सभ्यताओं का संघर्ष’ (The Clash of Civilizations) 1993 में आई थी। बाद के संस्करणों में इस किताब में उन्होंने कुछ और चीजें भी जोड़ी।

हंटिंगटन को इस किताब की प्रेरणा कुछ घटनाओं से मिली। अमेरिका में मेक्सिको से आए प्रवासियों के दंगों का ज़िक्र है कि किस तरह दंगाई मेक्सिकन अमेरिका के नहीं बल्कि मेक्सिको के झंडे लहरा रहे थे।

दूसरी घटना का ज़िक्र है कि किस तरह 1992 में आज़ादी की घोषणा और फिर सर्बिया के हमलों के बाद उस पर अमेरिकी बमबारी के बावजूद बोस्निया के मुसलमान सड़क पर उतरते तो उनके हाथ में तुर्की और सऊदी अरब के झंडे होते। जबकि बोस्निया के पक्ष में युद्ध अमेरिका ने लड़ा।

इन दोनों घटनाओं को देखने के बाद हंटिंगटन इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि लोगों का स्वाभाविक प्रेम उन लोगों से होता है जो उनके जैसे होते हैं। यानी जिनकी सभ्यता और सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य एक समान हैं।

अब अगला युद्ध वस्तुत: सभ्यताओं के बीच लड़ा जाएगा। इन सभ्यताओं में आपसी साम्यताओं के अध्ययन के बाद हंटिंगटन इस नतीजे पर पहुंचे कि इस युद्ध में इस्लाम, कम्युनिस्ट और कन्फ्यूशियस ताकतें एक साथ रहेंगी जबकि हिंदू, बौद्ध, ईसाई और यहूदी एक साथ।

युद्ध का फलक बहुत ही विशाल होगा और पूरी दुनिया में हर गली और कस्बे तक में लड़ा जाएगा। वामिस्लामियों और धिम्मियों ने कितने भी हमले बोले पर ढाई दशक बाद हम उनकी कही गई एक-एक बात को अक्षरश: सत्य होते देख रहे हैं।

इसी किताब से प्रेरित होकर डोमिनिक मोइसी ने 1910 में एक किताब लिखी ‘जियोपालिटिक्स ऑफ इमोशन’। मोइसी लिखते हैं कि राजनीति भावनाओं से संचालित होती है जिसका कभी समुचित अध्ययन नहीं किया गया। उनके अनुसार कुछ देशों और सभ्यताओं में एक खास भावना की प्रधानता होती है। अपमान का बोध, डर का भाव, घृणा, कुंठा, बेचैनी और आशा।

मोटे तौर पर वे बताते हैं कि इस्लामी देशों में अपमानबोध बहुत ही व्यापक है। यह उनकी राजनीति का मूल तत्व है। राजा हों या रियाया, सबके मन में यही पीड़ा है कि किस तरह इस्लाम की तलवार कभी पूरी दुनिया पर हुकूमत करती थी और पेट्रो डॉलर होने के बावजूद आज वे कितने बेबस और कमज़ोर हैं।

घृणा, कुंठा और अपमानबोध, पाकिस्तान में ये तीनों ही चीज़ें हैं जो उसकी दशा-दिशा तय करती हैं। अमेरिका और यूरोप के बारे में मोइसी कहते हैं कि वहां के शासन व समाज में भय की प्रधानता है। कई तरह के भय। चीन के उदय का भय. श्वेत आबादी के घटते जाने का भय, इस्लामी आतंकवाद और यूरोप में बढ़ती मुस्लिम आबादी का भय।

भारत और चीन भविष्य को लेकर आशा और आकांक्षाओं से ओत प्रोत हैं। चीन खुद को अगला सुपर पावर देख रहा है। भारत भी सुपर पावर बनने का आकांक्षी है। इस कड़ी में मैं अपना यह बयान जोड़ दूं कि भारत में आर्थिक तरक्की के अलावा मंदिर आंदोलन से शुरू हुई और मोदी काल में पल्लवित हुई हिंदू पुनरुत्थान और पुनर्जागरण की भी एक लहर है। हमारा मानना है कि अब घड़ी की सुई पीछे की ओर नहीं मोड़ी जा सकती।

सभ्यताओं की गोलबंदी और घृणा, भय और अपमान बोध से संचालित राष्ट्रनीतियां बहुत ही जटिल समीकरणों को जन्म दे रही हैं। अमेरिका व यूरोप के चीन से अपने डर हैं और वे भारत को उसके सबल प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखना चाहते हैं।

चीन की आकांक्षा एशिया पर दबदबे की है। भारत इस सपने को पूरा करने में सबसे बड़ी बाधा है। इसलिए वे देश, जिनकी नीतियां घृणा और अपमानबोध से संचालित होती हैं, चीन के स्वाभाविक सहयोगी हैं। खास तौर से तुर्की और पाकिस्तान। इन तीनों की ही भारत में अलग-अलग कांस्टीच्युएंसी (समर्थन आधार) है।

चीन के पास कम्युनिस्ट, नक्सली और पूर्वोत्तर में उसके पोषित अलगाववादी समूहों के अलावा कॉरपोरेट, मीडिया और लुटियन में भी सहयोगी हैं। घृणा, अपमानबोध और कुंठा में जल रहे पाकिस्तान को 20 से 25 करोड़ की मुस्लिम आबादी के जिहादी चरमपंथियों का आसरा है।

ये वो तबका है जो माने बैठा है कि हमने 800 साल हुकूमत की और हमसे हिंदुओं पर शासन का हमारा हक छीन लिया गया। इस्लामी हुकूमत जाने का दर्द तो साल ही रहा था, पर अब इस मोदी राज को कैसे कबूल कर लें ये। इन्हें समय का इंतज़ार है।

तुर्की इस खेल में नया पर सबसे सक्रिय खिलाड़ी बन कर उभरा है। अर्दोआन अब ऑटोमन साम्राज्य की बहाली के सपने देख रहे हैं और खुद को अगला खलीफा घोषित करने की तैयारी में हैं। भारतीय मुसलमानों के खलीफा प्रेम और खिलाफत आंदोलन से वे भली भांति वाकिफ हैं। उन्हें मालूम है कि यहां से मदद की संभावनाएं कितनी हैं। उनके प्रयास बहुत ज़ोर-शोर से जारी हैं। किस तरह, ये अगली कड़ी में।

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