सामान्य वर्ग को 10% आरक्षण : एक दूसरे के करीब आ रही हैं मनुष्यता और संवैधानिकता

सामान्य वर्ग या तथाकथित सवर्ण वर्ग के आर्थिक रूप से कमज़ोर के लिये एक अचम्भे की तरह लाये गये 124वें संविधान संशोधन विधेयक पर बहुत कहा जा रहा है, कहा गया है संसद के अंदर भी और संसद के बाहर भी।

संसद के दोनों सदनों से अभूतपूर्व बहुमत से पारित और महामहिम राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद अब यह एक कानून बन चुका है। अब इस कानून के अनुसार सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में भी 10 प्रतिशत आरक्षण का लाभ मिल सकेगा।

अगर इस विधेयक की सामाजिक भावना को व्यक्त किया जाए तो वो इतनी ही है कि गरीबी जाति पूछ कर नहीं आती और गरीब को भी सरकार की सहायता की ज़रूरत है। इस सामाजिक भावना को ही प्रतिबिम्बित करता है यह विधेयक।

इस सामाजिक भावना की शक्ति का ही अदृश्य प्रभाव रहा है कि इस विधेयक पर दुनिया भर की नुक्ताचीनी करने के बाद भी लोगों ने इसके पक्ष में मतदान किया।

एक सुंदर घटना यह भी घटी है कि सामाजिक बराबरी के लिए काम करने वाले एक संगठन ने उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा के आधार पर इस विधेयक की संवैधानिकता पर उच्चतम न्यायालय में ही चुनौती दी है। इस पर उच्चतम न्यायालय का निर्णय दिलचस्प होगा। सामाजिक स्वर का सच और संवैधानिकता के बीच उच्चतम न्यायालय की आवाज़ एक निर्णायक स्वर देगी।

जैसा पहले ही कहा कि गरीबी जाति पूछ कर नहीं आती और शासन का दायित्व है कि गरीब को भी शासन का सहयोग मिलना चाहिये। इस सच में इतनी शक्ति तो थी कि इस विधेयक की प्रासंगिकता और क्रियान्वयन पर मख़ौल उड़ाने वाले लोगों ने भी अपने विचारों के विरुद्ध इस विधेयक के पक्ष में मतदान किया।

सच्चाई से जुदा रह पाने की एक सीमा होती है और यह विधेयक अस्तित्व में आया ही है उस सीमा को तोड़कर। सारी राजनीतिक पार्टियां भी विभिन्न अवसरों पर पहले भी इस विधयक की बात करती रही हैं और अब यह सचमुच कानून बन चुका है।

यह बात तो स्पष्ट है कि अब अनारक्षित पदों की संख्या पहले से कम हुई है और प्रशासनिक सेवाओं में गरीब की सहायता के नाम पर अयोग्य लोगों की भर्ती करके ही गरीब की सहायता की जा सकती है। इस सोच को भी बदलने का समय है।

आज अब वैचारिक अराजकता अपने चरम पर है, लोग अपने ही विचारों से दूर खड़े हैं और सरकार निर्माण के लिए राजनीतिक दलों द्वारा बनाये गए तमाम भावुक प्रबन्ध सरकार चलाने, कानून व्यवस्था कायम करने में मुश्किलें पैदा कर रहे हैं तो समाज, राजनीतिक दल, संवैधानिक संस्थाओं औऱ शासन के बीच नए तरह से नए तरीके से सामाजिक, मानवीय और संवैधानिक रिश्ते तय करने की ज़रूरत है। अब ये तय करने की ज़रूरत है कि गरीब को शासन किस प्रकार से सहयोग करे कि वो आत्मनिर्भर हो सके।

ज्ञातव्य हो कि शासन में नौकरियों की संख्या कम होती जा रही है। सरकारी विभाग निजी क्षेत्रों में जा रहे हैं।

हर भारतीय नागरिक को अपनी आवाज़ के साथ खड़ा होना चाहिए कि शासन गरीब आदमी को सहयोग करने की अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहा है और ये विधयक उसी दायित्व की सम्पूर्ति कर रहा है।

यकीनन देश के हालात बदल रहे हैं। इस बदलाव में मनुष्यता और संवैधानिकता एक दूसरे के करीब आ रहे हैं और वैचारिक उपनिवेश टूट रहे हैं।

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