बिन दूल्हे की बारात : महागठबंधन

2019 आ चुका है, और जनवरी में ही इतने राजनीतिक रंग दिख चुके हैं कि अब भारत के राजनैतिक परिदृश्य में कैसी कैसी रोमांचक चीजें होंगी, इसका अंदाजा लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है।

आज आखिरकार ममता बनर्जी ने 2019 के लोक सभा चुनावों को मद्देनजर रखते हुए एक कदम आगे बढ़ा ही दिया। बाकी मीडिया का ध्यान भी मोदी और राहुल से हट कर ममता की तरफ गया, और इसी के साथ ही हमें एक नया स्वाद भी मिला।

ममता बनर्जी के साथ कुल बाईस दलों ने अपना कदम मिलाया है। कह सकते हैं कि जो महागठबंधन एक परिकल्पना मात्र थी, उसे आज देखा गया।
आज अरविंद केजरीवाल दिखे, किसी के न होने वाले बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा और मायावती भी एक मंच पर नजर आईं। पर इसे राजनीतिक अन्वेषण के चश्मे से देखा जाए तो आज कई सारे अवसरवादियों, मायावती जैसे भ्रष्ट और महत्वाकांक्षी लोगों ने “नरेंद्र मोदी को हटाने और हराने के लिए” जोर कसा है।

बड़ा सवाल ये है कि ममता के साथ कदमताल मिलाते ये बाईस कदम, क्या दिल मिला कर भी चल पाएंगे?

मुझे 1974 का जेपी आंदोलन का दौर याद आता है, जिस वक़्त जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार में एक छात्र आंदोलन की शुरुआत हुई थी। आंदोलन इतना व्यापक रहा कि इसकी आंच इंदिरा गांधी सरकार तक जा पहुंची थी।

क्रांति की तपिश इतनी भयानक थी कि केन्द्र में कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ गया था। जय प्रकाश नारायण के हुंकार पर नौजवानों का जत्था सड़कों पर निकल पड़ता था। बिहार से उठी सम्पूर्ण क्रांति की चिंगारी देश के कोने-कोने में आग बनकर भड़क उठी थी। जेपी के नाम से मशहूर जयप्रकाश नारायण घर-घर में क्रांति का पर्याय बन चुके थे। लालू यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान और सुशील कुमार मोदी, आज के सारे नेता उसी छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का हिस्सा थे। इसके अलावा देश के भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने भी इस आंदोलन में बढ़ कर हिस्सा लिया था।

कुल मिला कर उस वक़्त एक अडिग नेतृत्व था, जिसके चलते इंदिरा गांधी को डर के मारे इमरजेंसी लगानी पड़ गई थी। आज के दौर में क्या कोई जेपी के जैसा तो छोड़िए, उसके आस पास भी फटकता है? क्या कोई है जिस चेहरे में भारत की जनता देख मोदी का विकल्प देख सके?

चलिए, क्या इनका कोई नेता है जिनका नाम प्रधानमंत्री के पद के लिए ये बाईस दल मिल जुल कर अग्रसारित कर सकें?

जब हम ये सारे सवाल करते हैं तो दूर दूर तक उत्तर नजर नहीं आता। राजनीतिक पार्टियां अगर साथ आती हैं तो उनके नेता में एक परिपक्वता होनी बहुत जरूरी होती है। अब अखिलेश यादव और मायावती के गठबंधन को उदाहरण के तौर पर लेते हैं।

उत्तर प्रदेश में इन लोगों ने जिस तरीके से सीटों का बंटवारा किया है, इस से समझ में नहीं आता कि इन्होंने बीजेपी को हराने के लिए गांठ जोड़ी है या जिता रहे हैं!

आज उन्नाव, फरुखाबाद, बाराबंकी और प्रतापगढ़ जैसे इलाकों में कांग्रेस के पास लड़ने लायक नेता थे। और बसपा के पास अब कोई ढंग का नेता तक नहीं बचा जो चुनाव लड़ सके।

उस वक़्त अगर आप बसपा से गठबंधन करते हैं तो आपने कांग्रेस को कमजोर और बसपा और अपने कोर वोटर्स को कहीं न कहीं कंफ्यूज कर देते हैं। यादव बिरादरी को छोड़ कर बाकी सभी ओबीसी समाज के लोग इसी गठबंधन के चलते भाजपा के ओर मुड सकते हैं। आजम खान की नाराज़गी दिख ही रही है।

मतलब आपने जो कट्टा बीजेपी की तरफ निशाना कर के चलाने की कोशिश की है, वो आपके हाथ में फटने वाला है। अब इतने अपरिपक्व निर्णयों से आप नरेंद्र मोदी को हरा देंगे, इस पर लोगों को तो भरोसा होने से रहा।

अब अगला मुद्दा प्रोटोटाइप का है। 2014 में नरेंद्र मोदी ने चुनाव की शुरुआत अपने गुजरात मॉडल से की थी। उन्होंने गुजरात मॉडल दिखा कर वोट मांगा था। ममता जी कौन सा मॉडल दिखाएंगी? वो पश्चिम बंगाल , जहां आए दिन विपक्षी पार्टियों के नेताओं के कत्ल की खबर आती रहती है? या बदुरिया और बशीरहाट के दंगों वाला मॉडल दिखाएंगी?

चलिए, हो सकता है इनमें से कुछ न दिखा कर रोहिंग्या घुसपैठियों के तुष्टीकरण वाला मॉडल दिखा दें ममता जी। महागठबंधन को सजग रूप से चलाने के लिए नेतृत्व में त्याग, धैर्य और विजन चाहिए होता है, पर यहां तो जुड़े लोगों में ही सत्ता की हवस, और अहंकार गुलाचें मार रहा है।

किसी के पास अपना विजन नहीं है। सब नरेंद्र मोदी को हराने के लिए चुनाव लड़ रहे हैं। ये गठबंधन कम, सियारों की लामबंदी ज्यादा लग रही है।

कुल मिला कर निष्कर्ष यही निकलता है कि फिलहाल तो महागठबंधन उस बारात की तरह है जिसके बाराती ही दूल्हा बनने की चाह रखते हैं। और असल दूल्हा कौन होगा इस बात का फिलहाल कोई जवाब नहीं है।

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