पाकिस्तानी किताबों में उनका इतिहास मुहम्मद-बिन-कासिम से शुरू होता है।
लगभग 1000 वर्षों के संघर्ष के बाद दारुल-इस्लाम की एक ठांव पाकिस्तान के दौर पर बनती है, लेकिन संघर्ष अभी बाकी है।
काफिरों पर हुकूमत करने, उनसे छीनने और बाकी लड़ाई जारी रहने को ही वहां इतिहास की किताबों में भरा गया है।
यह पाकिस्तान की गलती नहीं है। वह तो अपने मज़हब का पालन कर रहा है, जैसे इकबाल ने किया, जिन्ना ने किया और अभी ओवैसी या फारूख या अब्दुल पंचरवाला कर रहा है।
आप फोड़े की सर्जरी कर नहीं रहे, उस पर खूबसूरत पट्टी लगा दे रहे हैं।
समस्या मुहम्मडन में है ही नहीं, मुहम्मदवाद में है।
मुहम्मडन तो पूरी कायनात को जब तक मुहम्मडन न कर ले, उसका संघर्ष जारी रहेगा, ईसाई जब तक पूरी दुनिया को ईसाई न बना ले, उसका क्रूसेड जारी रहेगा।
समस्या किसी भी वैसे पंथ में है, जो खुद को एकमात्र सही मानता है।
समस्या इन दोनों ही अब्राहमिक मज़हब में है।
आप उस पर बात ही नहीं करते।
कभी 12-14 फीसदी रहे होंगे हिंदू, पाकिस्तान नाम के भूभाग पर। अब 1 फीसदी से भी कम हैं।
समस्या पाकिस्तान की या मुहम्मडन की नहीं, हिंदुओं की है। 1940 में लाहौर या इस्लामाबाद के हिंदू हंसते होंगे न!
गंगा-जमनी तहज़ीब तब भी रही होगी न, तब भी सेकुलर और ‘परगति’शील लेखक थे न, तब भी प्रेमचंद प्रलेस की अध्यक्षता कर रहे थे, अब्बास तब भी हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई का राग अलाप रहे थे न…।
बहुत समय और प्रतीक्षा के बाद पाकिस्तान के हिंदुओं को न्याय मिला है। भाजपा सरकार के सारे कुकर्म इसी एक बात पर माफ किए जाने चाहिए।