एलोपैथी में एंटीबायोटिक दवाइयों का भरपूर उपयोग होता है।
यह ‘एंटी’ कुछ कुछ ‘ज़हर को ज़हर ही मारता’ वाला सिद्धांत ही है।
शुद्ध भाषा में कहें तो एक कीटाणु को दूसरा कीटाणु आकर मारता है।
लेकिन इस मारने के चक्कर में कुछ दूसरे अच्छे कीटाणु भी मर जाते हैं।
यह एलोपैथी का साइड इफ़ेक्ट है।
आज का समय कुछ और है, सर्दी बुखार में भी तुरंत राहत चाहिए, इसलिए कोई कितना भी समझदार डॉक्टर हो, तुरंत एंटीबायोटिक दे देता है।
वो जानता है कि अगर उसने यह कहा कि गर्म पानी से कुल्ला-गरारा करो, अदरक की चाय और गर्म गर्म सूप पियो, दो-तीन दिन में ठीक हो जाएगा, तो रोगी पड़ोस के डॉक्टर के पास चल देगा।
चाहे फिर बगल वाला डॉक्टर दो रूपये की स्टेरॉयड पीस कर रंगबिरंगे घोल में मिला कर बोतल में दे दे और कह दे कि शाम तक ठीक हो जाओगे। यह सुनकर ही रोगी बहुत खुश हो जाता है और सौ का नोट भी खुशी खुशी थमा देता है।
शाम तक सर्दी बुखार उतर जाता है, जो कि उतरना ही है, उसके उतरते ही आसपड़ोस को भी डॉक्टर का रास्ता बताता है।
यह दीगर बात है कि कुछ दिनों बाद सर्दी-बुखार फिर लौट आता है, पहले से अधिक भीषण रूप में, तो वो फिर उसी डॉक्टर के पास पहुंच जाता है।
इस बार उसे हायर डोज़ दिया जाता है, जिसकी फिर फीस भी बढ़ जाती है। और इस तरह से इस डॉक्टर की दुकान चल पड़ती है और पहले वाले की बंद हो सकती है।
क्या कोई डॉक्टर चाहेगा कि उसकी दुकान बंद हो?
ऐसे में जो व्यवसायी मिजाज़ का डॉक्टर है, वो खुल कर दवाई लिखता है और मरीज़ के साथ साथ दवाई से भी कमीशन कमाता है।
मगर एक समाजसेवी डॉक्टर के पास क्या रास्ता रह जाता है?
ऐसे में वो बीच का राह पकड़ता है, पहले चार साल योगाभ्यास करके शरीर को स्वस्थ बनवाया, शौचालय और स्वछता के द्वारा शरीर को बीमारियों से दूर रखवाया…
कुछ कुछ तो फायदा हुआ, लेकिन जब देखा कि सत्तर साल का एंटीबायोटिक खाया हुआ शरीर है, उसे अभी बीमारियों से लड़ने लायक बनने में थोड़ा और वक्त लगेगा तो अंत में… इसके पहले कि रोगी पड़ोस के डॉक्टर के पास जा कर स्टेरॉयड ले लेकर अपना सर्वनाश करवा ले, एक हल्का सा एंटीबायोटिक का डोज़ दे दिया।
यकीनन रोगी को इससे कुछ तुरंत राहत मिलेगी, और वो कल फिर आएगा इलाज करवाने।
अगली बार जब वापस आएगा, तो नैचरोपैथी से उसका ऐसा पक्का इलाज होगा कि वो फिर बार बार अस्पताल के चक्कर नहीं लगाए।
क्या यहाँ यह बताने की आवश्यकता रह जाती है कि, आज का आरक्षण भी और कुछ नहीं बल्कि एंटीबायोटिक की सबसे हल्की डोज़ है।
अभी समाज का ट्रीटमेंट लम्बा चलेगा।
समाज को अपने पैरों पर खड़ा होने में, स्वावलम्बी बनने में अभी वक्त है।
बीमारी क्रॉनिक है और अगर उसे जड़ से ख़त्म करना है तो नैचरोपैथी के लिए वक्त तो देना पड़ेगा।
वरना जिसे जल्दी है वो पड़ोस की दुकान से स्टेरॉयड ले सकता है।