अब एक नया नैरेटिव सेट किया जा रहा है। और भूंजे जाने को बेताब मछलियां जाल की तरफ भागी चली आ रही हैं।
तीन तलाक का मुद्दा और शबरीमाला में स्त्रियों के प्रवेश के मामले एक ही तो हैं। दोनों में भेद क्यों हो रहा है?
शबरीमाला वाला मामला एक निर्दोष हानिरहित प्रथा है। इसके औचित्य अनौचित्य पर विमर्श के लिए स्थान संभव है।
पर एक बात तो बिल्कुल स्पष्ट है। शबरीमाला न जाने से किसी को शारीरिक, आर्थिक या आध्यात्मिक कष्ट नहीं होता।
किसी स्त्री को खुदानखास्ता भक्ति के तूफान ने यदि एक ब एक घेर ही लिया तो उसे तुरंत लाखों मंदिरों में से कोई भी मंदिर चुन लेने की सुविधा सहज प्राप्त है। रिक्शे पर चढ़ो और दस मिनट में मंदिर पहुंच कर भक्ति का ज्वार उतार लो।
पर हलाला में ऐसी व्यवस्था है? मुसलमान औरत के पास सुविधा प्राप्त है कि किस से वह हलाला करवाए? हलाला सिर्फ़ आध्यात्मिक भक्तिभाव से उपजे ज्वार का मामला है? हलाला का मतलब समझती हो फेमिनाजियों? जहालत शब्द से नावाकिफ़ हो। हलाला से अधिक घटिया और गिरी हुई कोई बात हो सकती है?
अब हर मुसलमान, ईसाई और वामपंथी गोहत्यारी औरत शबरीमाला जाने के लिए बेताब है। उसकी अचानक जगी आध्यात्मिक भूख अब शबरीमाला में ही मिट सकेगी।
मैं आजतक शबरीमाला न गया, न भविष्य में जाने की मेरी कोई योजना है – इसका अर्थ यह कि मैं न केवल जाहिल, रूढ़िवादी, पितृसत्तावादी खूसट हूं, बल्कि भक्तिभाव से पूरी तरह महरूम भी हूं। अब तो भक्ति है तो शबरीमाला पर आक्रमण की सफलता से मुदित NDTV के सजे संवरे, मुस्कुराते चेहरों पर ही स्थित है।
हलाला को बचाने के लिए शबरीमाला का सहारा लेते हो। तुम्हारी नीचता की सीमा नहीं। कल तुम बगदादी को बचाने के लिए बेमौसम हुई बारिश से हुए फसल के नुकसान का सहारा लोगे।
बात को सही परिप्रेक्ष्य में देखना अब भारत में नामुमकिन है। हर बात अब कुतर्क और rhetoric के घेरे में है।