मुझको 70 के दशक से ही सिनेमा देखने का शौक रहा है और माता पिता की श्रेष्ठ समझ होने के कारण, मुझे अच्छे सिनेमा की समझ शुरू से रही है।
इसका परिणाम यह हुआ कि मैं देखी हुई अंग्रेज़ी फिल्मों का, एक डायरी में रिव्यू लिखता था। इसी डायरी को मैं कभी कभार पलट लेता हूँ।
इस बार नागपुर की यात्रा के बाद उस डायरी को जब मैं पलट रहा था तब मेरी नज़र एक फ़िल्म, ‘द बोस्टन स्ट्रेंगलर’ (The Boston Strangler) पर पड़ी जो 1975 में मैंने झांसी में देखी थी।
यह फ़िल्म किसी उपन्यास पर आधारित थी। यह एक सीरियल बलात्कारी हत्यारे अल्बर्ट डिसाल्वो की कहानी कहती है। यह सामान्य बलात्कारी नही है, बल्कि एक सेक्सुअल मैनियाक है यानी यौन विकृति से पीड़ित व्यक्ति है।
अल्बर्ट डिसाल्वो की भूमिका, टोनी कर्टिस ने निभाई थी, जिसे बलात्कार करके काम सन्तुष्टि मिलती है और जो पकड़े जाने से बचने के लिए, अपनी हवस की शिकार हुई स्त्रियों की हत्या कर देता है।
अल्बर्ट एक सामान्य सा दिखने वाला व्यक्ति है, जो शादीशुदा और बच्चों का पिता है। बोस्टन शहर में जब एक ही तरह से लगातार बलात्कार व हत्या की घटनाएं सामने आती है तो उसको पकड़ने के लिए एक पुलिस अधिकारी जॉन बोटोमली, जिसकी भूमिका हेनरी फोंडा ने निभायी है, के नेतृत्व में एक टीम बनाई जाती है।
वह इस बलात्कारी हत्यारे को पकड़ने की लिए हो रही घटनाओ का अनुसंधान करता है और कोई सुराग हाथ नहीं लगने पर एक मनोवैज्ञानिक की सहायता लेता है। वो जॉन बोटोमली को बताता कि उसका अपराधी एक मैसोचिस्ट (पर-पीड़ित कामुक) है, जिसे कामक्रिया में महिलाओं को कष्ट देने में रतिसुख मिलता है।
यह जानकर जॉन शहर के सभी संदिग्ध मैसोचिस्ट आदमियों को संदेह में पकड़ता है, लेकिन सबूतों के अभाव में वो सबको छोड़ देता है।
इधर अल्बर्ट की तलाश में पुलिस उसे ढूंढ रही है और उधर वो एक सामान्य पारिवारिक व्यक्ति के रूप में अपनी ज़िंदगी जीता रहता है।
एक बार वो एक अपार्टमेंट में घुस कर उसमें रह रही महिला का बलात्कार का प्रयास कर रहा होता है कि वह अपनी शक्ल बेडरूम में लगे शीशे में देख कर हतप्रभ रह जाता है। उसको रुका देख, महिला उसकी हथेली को काट लेती और वह उसकी पकड़ छूट जाती है। इससे घबड़ा कर अल्बर्ट अपार्टमेंट से भाग जाता है।
वो महिला पुलिस को इस घटना के बारे में बताती है और अब पुलिस के पास अल्बर्ट की पहचान के लिए सुराग मिल जाता है कि उसकी हथेली में दांत से काटे का निशान है।
इस घटना के बाद अल्बर्ट बलात्कार करने एक दूसरे घर में घुसता है लेकिन वहां उसका पति है तो उसे वहां से भी भागना पड़ता है। इस बार उसे सड़क पर जा रहा एक पुलिस वाला पकड़ लेता है और गैरकानूनी रूप से घर में प्रवेश करने के आरोप में गिरफ्तार कर लेता है।
पुलिस द्वारा पूछताछ में यह बात सामने आती है कि यह एक मानसिक रोगी है इसलिए इस पर मुकदमा नहीं चल सकता है। पुलिस उसको मानसिक चिकित्सक के परीक्षण के लिए अस्पताल में भर्ती करा देती है। वहां एक दिन इत्तफाक से पुलिस चीफ डिटेक्टिव जॉन बोटोमली का सहायक उससे अस्पताल में टकरा जाता है और उसकी हथेली में चोट देख, कर उस पर संदेह करता है।
इसके बाद जॉन का अनुसंधान का केंद्र अल्बर्ट हो जाता है लेकिन फिर भी पूछताछ से कोई भी सुराग नहीं मिलता है। डॉक्टर, जॉन को कहता है कि अल्बर्ट स्प्लिट पर्सनाल्टी (विखंडित व्यक्तित्व) का शिकार है। उसका एक सामान्य व्यक्तित्व है और दूसरा खूनी बलात्कारी का है और दोनों व्यक्तित्व एक दूसरे से अंजान है।
जॉन, डॉक्टर से कहता है कि यदि पूछताछ इस तरह से की जाए कि दोनों व्यक्तित्व एक दूसरे के सामने आ जायें तो अल्बर्ट अपने अपराधों को स्वीकार कर सकता है। इस पर डॉक्टर, जॉन को आगाह करता है कि यदि ऐसा हुआ तो अल्बर्ट कैटटोनिया (एक प्रकार की विक्षिप्तता जिसमें व्यक्ति संवेदनहीनता में स्थिर हो जाता है, वह जीते जी मरा सा होता है) का शिकार हो सकता है।
अल्बर्ट के मानसिक रोगी होने के कारण जॉन अदालत से उसके जुर्मो की सज़ा तो नहीं दिलवा सकता है इसलिए वह पूछताछ आगे बढ़ाता है और अंत मे अल्बर्ट डिसाल्वो के दोनों व्यक्तित्व टकरा जाते हैं और वो कैटटोनिया का शिकार हो जाता है।
आज जब मैं ‘बोस्टन स्ट्रेंगलर’ फ़िल्म की याद कर रहा हूँ तो मुझे जॉन बोटोमली चीफ डिटेक्टिव वाले चरित्र का एक डायलॉग याद आ रहा है जो अनुसंधान के अंत में कहता है कि यदि लोगों (माता, पिता, बहन, भाई, पत्नी, परिवार और उसके करीबी) ने अल्बर्ट डिसाल्वो की यौन विकृतियों के लक्षणों को शुरू में नज़र अंदाज़ नहीं किया होता तो जहाँ बहुत सी बलात्कार और हत्याए की घटनाएं बचतीं, वहीं पर अल्बर्ट भी एक सीरियल बलात्कारी और हत्यारा बनने से बच सकता था।
यही सब आज भारत में दिख रहा है। भारत में सामाजिक परिवेश से लेकर शासकीय व न्यायिकतंत्र में हिंदुत्व व हिन्दुओं की परंपराओं और मान्यताओं पर पिछले कई दशकों से कुठाराघात होता जा रहा है लेकिन उसके बाद भी हिन्दू, इसे दूसरे का मामला मान असक्रियता में लिप्त है।
हिन्दू अपने अपने स्वार्थ में इतना आत्मकेंद्रित है कि वह अपनी आस्था को विकृत करने के सभी लक्षणों की, जानते बूझते अवेहलना करता है। वो इससे प्रसन्न है कि यह विकृति उसके घर में नहीं हो रही है। यदि कहीं और है तो उसकी जिम्मेदारी या तो शासक पर छोड़ कर या फिर आक्रोश के दो बोल बोलकर, अपने को उत्तरदायित्व से मुक्त समझ, श्रेष्ठ समझता है।
क्या कारण है, हम सब सबरीमला की ओट में हिन्दुओं पर हो रहे कुठाराघात से केरल के हिन्दुओं की तरह उद्वेलित नहीं हैं? केरल का हिन्दू दिन रात संघर्ष कर रहा है, रक्त बहा रहा है, लेकिन शेष हिन्दू अपने घर में सुरक्षित, केवल गर्जन कर रहा है कोई मोदी की सरकार का मुंह तक रहा, कोई आरएसएस और कोई विश्व हिंदू परिषद पर प्रश्न खड़ा कर रहा है लेकिन स्वयं पर कोई प्रश्न नहीं कर रहा है।
हम सब शायद इस लिए नहीं कर रहे हैं क्योंकि हम अब अपनी लड़ाई लड़ने वाली नस्ल नहीं रह गए हैं। सबरीमला ‘उनका’ मामला है, मलयाली हिन्दू निपटेगा और हम यहां उनको भावनात्मक समर्थन दे कर, अपने कर्तव्य की इति समझ रहे हैं।
यह सिर्फ हमारी ही सोच नहीं है बल्कि हिन्दुओं के पराभव के नैतिक रूप से उत्तरदायी यह हिन्दुओं के शंकराचार्य, धर्मगुरू व बाबा हैं जो अपनी गद्दियों, आश्रमों में कलयुगी सुखों को भोग, मौन हैं।
हम हिन्दू इनके चरणों में लोट, अपने हिन्दू होने की इति समझ कर, अपने अपने लिए स्वर्ग में स्थान पक्का करने में लगे हैं, लेकिन हिन्दुओं के अस्तित्व को बनाये रखने में उनकी नेतृत्वहीनता, जो अक्षम्य अपराध है, पर दिग्भ्रमित हैं। खुद इनके समर्थक हिन्दू मौन हैं।
मुझे यह अच्छी तरह समझ में आता है कि क्यों हिन्दू अपने अस्तित्व के लिए सिर्फ शासकों पर अपनी निर्भरता बनाये हुये है। वस्तुतः सत्य यही है कि हिन्दुओ की यह निर्भरता उनको उनकी नपुंसकता व अन्धस्वार्थ से ग्रसित उनके स्वयं के चरित्र को छुपाने में सहायक होती है। उसके पास, स्वयं की अपनी अकर्मण्यता और भीरुता को अभयदान देने के लिए शासक व तन्त्र को आरोपित करना, अपने को बचा लेने का एक सर्वश्रेष्ठ मार्ग होता है।
अल्बर्ट डिसाल्वो की विक्षिप्तता के लक्षण शुरू से ही दिखने लगे थे लेकिन सबने इसकी अनदेखी की क्योंकि वह उनका मामला नहीं था। उनके साथ सब ठीक ठाक चल रहा है, वे इसी से संतुष्ट थे। हिन्दुओं के मौन, उपेक्षा व तटस्थता ने ही, अल्बर्ट डिसाल्वो को दूसरों का बलात्कार व हत्या करने के लिए तैयार किया है।
हमारी मान्यताओं और परंपराओं के साथ बलात्कार व उनकी हत्या दूसरों ने इस लिए की है क्योंकि हिन्दुओं की नपुंसकता, स्वार्थ, भीरुता और उदासीनता ने अल्बर्ट डिसाल्वो के अस्तित्व को सम्बल दिया है। आज सदूर केरल में मलयाली हिन्दू, सबरीमला को विकृत होते हुए देख रहा है लेकिन कल यह आपके घर में ही होगा।
जब यह होगा तब भी लोग आपकी बेचारगी पर खूब गरजेंगे, शासकों, न्यायालयों को वे कोसेंगे लेकिन सड़क पर आयेगा कोई नहीं। इन तमाम कोलाहल के बीच घर उजड़ता रहेगा, बलात्कार और हत्याएं होती रहेगी और हम सब अपने पर उंगली उठाने की जगह, दूसरों पर उंगली उठा कर, चैन की नींद सो जायेंगे।
‘बोस्टन स्ट्रेंगलर’ तो एक फ़िल्म थी जिसमें अल्बर्ट डिसाल्वो को उसके कर्मो का फल मिल गया था लेकिन भारत मे जो शताब्दियों से हो रहा है वह वास्तविकता है। यहां कोई शासन, न्यायालय व कार्यपालिका का तन्त्र जॉन बोटोमली बन कर नहीं आने वाला है। यहां हिन्दुओं के अस्तित्व की रक्षा व विकृत करने वालों से लड़ने का उत्तरदायित्व, सिर्फ और सिर्फ हिन्दुओं का है।